________________ 1346 नैषधमहाकाव्यम् / असङ्गत नहीं है / अथवा-ग्रीष्मकाल में कोकिलका बोलना सर्वथा असङ्गत माननेपर 'अपिका नादिनी' अर्थात् पिकभिन्न सारिका आदि पक्षी जित रात्रि में बोलती है ऐसा तथा ( पक्षा०पिकभिन्न सारिकादिके समान बोलनेवाली ) ऐसा अर्थ करना चाहिये / अथवा-ग्रीष्मके बाद वर्षा ऋतुके आसन्न होनेसे 'मयापिकनादिनी' 'मया + अपि + कालादिनी' ऐसा ५द. त्रयच्छेद करके 'कनादिनी' शब्दका 'जलाका नाद ( ध्वनि ) है जिसमें ऐसी, पार के समान ध्वनि करने ( बोलने ) वाली अर्थकर क्रमशः ग्रीष्मरात्रि तथा दमयन्तीका विशेषण मानना चाहिये / प्रकृतमें नलका 'जिस प्रकार [पिकनादिनी, या-अपनादिनी या-कला. दिनी) ग्रीष्म ऋतुकी रात्रि छोटी होने से एक दार रति करने से ही समाप्त हो जाती है, उसी प्रकार पिकनादिनी ( या-अपिकनादिनी, या-कनादिनी) तुन भी अल्पवयस्का होनेले एक बार ही रति करनेसे थक जाती हो' ऐसा दमयन्तीको उपालम्भ होना समझना चाहिये ] // 89 // भुञ्जानस्य नवं निम्बं परिवेविषती मधौ / सपत्नीष्वपि मे रागं सम्भाव्य स्वरुषः स्मरेः ? || 801 भुनानस्येति / हे प्रिये ! परिवेविपती परिवेषणं कुर्वती, परिपूर्वात् विषधातोः जुहोत्यादिगणीयात् शतरि रूपम् / त्वमिति शेषः / मधौ वसन्तकाले, नवं प्रत्यग्रम्, अभिनवोत्पन्नत्वात् कोमलमित्यर्थः / निम्बम् अरिष्टपत्रम्, व्यञ्जनीभूतमिति भावः। 'वसन्ते भ्रमणं पथ्यमथवा निम्बभोजनम्' इत्यादि स्मरणात् / भुञानस्य खादतः, मे मम, सपत्नीषु समानपतिकासु अपरासु राज्ञीषु अपि, यद्वा-भुञ्जानस्य अभ्यवहरतः, मे मधौ धौद्रे सत्यपि। 'मस्तु-मधु-सीधु-शीधु-सानु-कमण्डलूनि नपुंसके च' इति चकरात् पुंसि चेति पुंल्लिङ्गता / नवं निम्बं पिचुमर्दम्, 'पिचुमर्दश्च निम्ब' इत्यमरः। परिवेविषती ददती, स्वमिति शेषः / सपत्नीषु अपि मे रागम अनुरागम , सम्भाध्य कल्पयित्वा, कृता इति शेषः, 'वसन्ते भ्रमणं पथ्यमथवा निम्ब भोजनम् / अथवा युवती भार्या अथवा वह्निसेवनम् // इति शास्त्रात् मां बसन्ते निम्बभोजनं कृतवन्तं दृष्ट्वा अन्यास्वपि युवतीभार्यासु अहमुपगता इति सम्भाव्य, अधवा शर्करामोदका. दिकं स्वादु द्रव्यं विहाय नितरां तिक्ते यदा अस्य रुचिः, तदा सुरूपामपि मां विहाय अपकृष्टासु मम सपत्नीषु अस्यासक्तिः नासम्भाव्या, लोकानां विभिन्नरुचिमत्वादिति भावः / स्वस्थ आत्मनः, रुषः रोषान् , स्मरेः ? मनसि कुर्याः किम् ? // 90 // ___ वसन्त ऋतुमें नये नीम ( के व्यञ्जन बने हुए कोमल पत्तों ) को खाते हुए मेरे अनु. रागकी सम्भावना सपत्नी स्त्रियों में भी करके बार-बार नीमको ही परोसती हुई तुम अपने क्रोधका स्मरण नहीं करती हो ? ( अथवा-परोसती हुई तुम वसन्त ऋतुमें नये नीमको भोजन करते हुए मेरे अनुरागकी सम्भावना सपत्नियों में भी करके किये गये अपने क्रोधका स्मरण करती हो क्या ?) / [ दमयन्तीने वैसी सम्भावना इस कारण की कि