________________ 848 नैषधमहाकाव्यम् / बादमें ) इन्द्रका त्याग करती हुई उसे ( दमयन्तीको ) देखकर इन्द्रमें अनुरागवती होती हुई लज्जित हो गयी। [ पहले तो स्वर्गलक्ष्मीने दमयन्तीको सरस्वती देवीके द्वारा इन्द्रके सामने लानेपर समझा कि यह मेरे पति इन्द्रके वरणार्थ आ रही है अत एव उसके साथ ईष्र्या की, किन्तु उसे इन्द्रका त्याग करती हुई देखकर 'मैंने इसे इन्द्रके वरणार्थ आती हुई समझकर इसके साथ व्यर्थ ही ईर्ष्या की' इस भावसे ( अथवा-इन्द्रको सुन्दर नहीं होनेसे मानवी भी दमयन्ती छोड़ रही है और मैं स्वर्गलक्ष्मी होकर भी इसमें अनुरक्त हो रही हूँ' इस भावसे ) लज्जित हुई ] // 32 // त्वत्तः श्रतो नेति नले मयाऽतः परं पदस्वेत्युदिताऽथ देव्या / ह्रीमन्मयरिथरङ्गभूमिभैमी दशा भाषितनैषधाऽभूत् / / 33 // स्वत्त इति / अथ नले नलवरणविषये, मया नेति निषेधार्थक नलनामार्द्धबोधक वा 'न' इति पदमित्यर्थः, स्वत्त एव श्रुतः, अतः नलात् , परम् अन्यं, वदस्व नृपान्तरं ब्रहीत्यर्थः, अथवा-अतः नकारपदात् , परमनन्तरं पदं, वदस्व इति देव्या वाग्देवः तया, उदिता सपरिहासं कथिता, हीमन्मथद्वैरथरङ्गभूमिः लज्जाकामरथिद्वयप्रवृत्त. युद्धनाढ्यशाला इव, भैमी दृशा दृष्टया इव, भाषितः नैषधः नलः यया सा तादृशी, अभूत् हिया कण्ठेन वक्तुमशक्ता कटाक्षदृष्टया नलं सानुरागम् ऐक्षतेत्यर्थः // 33 // ___ इस (इन्द्रका त्याग करने ) के बाद 'तुमसे मैंने नलके विषयमें 'न' अर्थात् नहीं (निषेध अथवा-नलका आधा नाम ) सुना अब इससे (नलमे) भिन्न अभीष्ट वर ( अथवानलके नाम के द्वितीय अक्षर 'ल' ) को कहो' इस प्रकार सरस्वती देवीसे कही गयी ( अत एव ) लज्जा तथा कामदेवके दो रथोंकी रङ्गभूमि ( नृत्तस्थान अर्थात् युद्धभूमिरूप ) दमयन्ती दृष्टिसे ( देखकर ही) नलका नाम कहा अर्थात् दूसरे किसीका नाम अथवा जलके नामका दूसरा अक्षर 'ल' का उच्चारण नहीं किया, किन्तु नलको देखकर ही 'इस नलमें वरणमाला पहनावो' ऐसा संकेत किया ] // 33 // हसत्सु भैमी दिविषत्सु पाणौ पाणिं प्रणीयाप्सरसा रसात् सा / आलिङ्गथ नीत्वाऽकृत पान्थदुगों भूपालदिकपालकुलाध्वमध्यम्॥३४॥ हसस्विति / दिवि सीदन्तीति दिविषदः देवाः, 'अमरा निर्जरा देवा, आदितेया दिविषदः' इत्यमरः / 'सत्सूद्विष-' इत्यादिना क्विप् / 'हृदुभ्याञ्च' इति उपसङ्ख्या. नात् सप्तम्यलुक्, 'सुषामादिषु च' इति षत्वम् , 'अविहितलक्षणमूर्द्धन्याः सुषामादिषु द्रष्टव्याः' इति वचनात् / तेषु रसात् अनुरागात् , अप्सरःसु इति भावः, अप्स. रसां पाणी पाणिं प्रणीय निधाय, अप्सरसां हस्तं त्वेत्यर्थः, हसत्सु अहो नरासक्ता इति परिहसत्सु सत्सु, सा सरस्वती, भैमीम् आलिङ्गय भूपालानां दिकपालानाञ्च कुलयोः वर्गयोः, अध्वा तस्य मध्य नीत्वा पान्थदुर्गा पथिकजनैः सिन्दूरादिभिः 1. 'रङ्गभूमी' इति पाठान्तरम् /