________________ चतुर्दशः सर्गः। 'वामं धने पुंसि हरे कामदेवे पयोधरे। वल्गुप्रतीपसव्येषु त्रिषु नार्या स्त्रियाम्' इति मेदिनी // 31 // (मानो दमयन्तीके भावको नहीं समझती हुई ) उस वागीश्वरी ( सरस्वती देवी) के द्वारा हाथमें पकड़कर इन्द्रके मार्गमें पथिक (वरणार्थ इन्द्र के सम्मुख ) की गयी उस दमयन्ती स्त्रोमात्रका वाचक 'वामा' ( प्रतिकूल रहनेवाली ) ने इस नामको सार्थक ही ग्रहण किया [ अर्थात् सरस्वती देवी द्वार। इन्द्र के सम्मुखकी गयो दमयन्तीने उसके प्रतिकूल होकर सर्व - स्त्रीवाचक 'वामा' नामको सार्थक किया ] // 31 // ( विहस्य हस्तेऽथ विकृष्य देवी नेतुं प्रयाताभि महेन्द्रमेताम् / भ्रमादियं दत्तमिवाहिदेहे ततश्चमत्कृत्य करं चकर्ष // 1 // ) विहस्येति / वाम्यानन्तरं देवी विहस्य किञ्चिद्धसित्वा एतां भमी स्वहस्तेन विकृष्य महेन्द्रमभि लक्षीकृत्य प्रस्थिता इन्द्रं प्रापयितुं निर्गता / तत इन्द्रादिगमनोद्योगानन्तरमियं भैमी चमत्कृत्य किमियमिन्द्रवरणे मां प्रवर्तयतीति बुद्धया भीत्वा करं स्वहस्तं चकर्ष आचकर्ष / किम्भूतमिव करम् ?-भ्रमाद्रज्जुभ्रान्तेरहिदेहे सर्पशरीरे दत्तमिव स्थापितमिवेत्युत्प्रेक्षा। सर्पदेहे भ्रमादत्तं हस्तं यथा कश्चित्कर्षति तथेत्युपमा वा / ततो देवीकरादिति वा // 1 // इस (दमयन्तीके इन्द्र के प्रतिकूल होने) के बाद सरस्वती देवी कुछ हँसकर (दमयन्तीको) हाथमें पकड़कर इन्द्रको प्राप्त कराने के लिए चलो, तब सरस्वतीके इन्द्रवरणार्थ उद्योग 'करनेके बाद ( अथवा-सरस्वती देवीके हाथसे ) इस (दमयन्ती ) ने भ्रमसे अर्थात् रस्सी जानकर सर्पके शरीरपर रखे हुएके समान हाथको चमककर ( क्या यह देवी इन्द्रको वरण करानेके लिए मुझे खींचकर ले जा रही है, इस विचारसे डरकर ) हाथको खींच लिया // 1 // भैमी निरीक्ष्याभिमुखीं मघोनः स्वाराज्यलक्ष्मीरभृताभ्यसूयाम / दृष्ट्वा ततस्तत्परिहारिणी तां ब्रीडां विडोजःप्रवणाऽभ्यपादि // 32 // भैमीमिति / भैमी मघोनः इन्द्रस्य, अभिमुखी निरीक्ष्य स्वः स्वर्गस्य राज्यं, 'स्वरव्ययं स्वर्गनाक-' इत्यमरः / 'ढलोपे पूर्वस्य दीर्घोऽणः' तस्य लक्ष्मीः अभ्यसूयाम इन्द्रे भैम्याञ्चेवा॑म् , अभृत बभार, भृङ्-धातोःलुङ तङ 'हस्वादङ्गात्' इति सिचो लोपः / ततः असूयानन्तरं, तां भैमी, तत्परिहारिणीम् इन्द्रपरित्यागिनीं, दृष्ट्वा विडोजः प्रवणा पुनरिन्द्रानुरक्ता सती, व्रीडाम् अभ्यपादि अभिपेदे, अन्यायं मया आशङ्कितम् इति विचिन्त्य सा ललज्जे इत्यर्थः / पद्यतेः कर्तरि लुङि तङि 'हस्वाद. ङ्गात्' इति सिचो लोपः, 'चिण ते पदः' इति चिण , 'चिणो लुक्' इति प्रत्ययस्य लुक् / दमयन्तीको इन्द्र के सामने ( वरणार्थ आयी हुई समझकर ) स्वर्गश्रीने ईर्ष्या की ( किन्तु 1. अयं श्लोकः पूर्वोक्तार्थतया म०म० मल्लिनाथेन न व्याख्यात इति मया नारायणभट्टकृतया 'प्रकाश' व्याख्यया सहेहोपन्यस्त इत्यवधेयम् / ,