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________________ सप्तदशः सर्गः। 1133 भाव ) को देखा। [ राजसूय यज्ञ में जुआ खेलना दोषप्रद नहीं माना गया है, अत उन्हें देखकर कलिको स्वपक्षीय किसीके नहीं मिलनेसे उसके लिए वहां सभी दुःखदायी ही हुए ] // - जपतामक्षमालासु बीजाकर्षणदर्शनात् / स जीवाकृष्टिकष्टानि विपरीतहगन्वभूत् / / 187 // जपतामिति / विपरीतहक् वेदविरुद्धदर्शी, सः कलिः, जपताम् इष्टमन्त्रस्य असकृदुच्चारणं कुर्वताम् , जनानामिति शेषः / अक्षमालासु जपमालिकासु, स्थितानां बीजानां पद्मा दिबीजानाम् , जपसङ्ख्यानार्थानामिति भावः / आकर्षणस्य आकृष्टः, पुनः पुनर्धामणस्येति यावत् / दर्शनात् अवलोकनान् , जीवाकृष्टिकष्टानि निजप्राणाकर्षणदुःखानि, अन्वभूत् अनुभूतवान् // 187 // वेदके विपरीत देखनेवाला वह ( कलि ) अक्षमालाओं (रुद्राक्ष, पद्माक्ष इत्यादि मालाओं) में ( गायत्री आदि मन्त्र ) जपनेवालोंके ( मन्त्र-गणनाके लिए) बीजों (मनियों ) का खींचना ( फेरना) देखनेसे अपने जीवके खींचने ( बाहर निकाले जाने ) के कष्टोंका अनुभव किया। [ गाययादि मन्त्र जपना देखकर वेदविरुद्ध द्रष्टा कलिको अपने प्राणों के निकलनेके समान कष्ट हुआ ] // 187 / / त्रिसन्ध्यं तत्र विप्राणां स पश्यन्नघमर्षणम् / परमैच्छद् दृशोरेव निजयोरपकर्षणम् / / 188 / / त्रिसन्ध्यमिति / स कलिः, तत्र पुरे, त्रिसन्ध्यं सन्ध्यात्रये, 'समाहारैकरवे वा तस्य' इति नपुंसकत्वम् , अत्यन्तसंयोगे द्वितीया / विप्राणां ब्राह्मणानाम् , अघमर्षणं तत्तन्मन्त्रसाध्यं पापहरं चुलुकोदकेन नासास्पर्शाभिमन्त्रितं क्रियाविशेषम्, पश्यन् अवलोकयन् , परं केवलम् , निजयोः दृशोरेव स्वनेत्रयोरेव, अपकर्षणम् उत्पाटनम् , ऐच्छत् अवान्छत् / अघमर्षणक्रियां दृष्ट्वा नेत्रोत्पाटनवदुःखमाप इति भावः // 14 // वह ( कलि ) वहां पर तीनों सन्ध्याओं (प्रातःसन्ध्या, मध्याह्नसन्ध्या और सायंसन्ध्या) में ब्राह्मगोंका अघमर्षण ( 'ऋतञ्च सत्यञ्चाभि द्वात्....' मन्त्रसे चुल्लूमें जल लेकर नासिका स्पर्श करते हुए क्रिया-विशेष करना ) देखकर केवल अपने नेत्रोंको ही निकालना चाहा [पाठा०-नेत्रोंको निकालना ही अच्छा माना ) अर्थात् अपने नेत्रों को निकालनेसे भी अधिक दुःखको प्राप्त किया // 188 // अद्राक्षोत् तत्र कश्चिन्न कलिः परिचितं कचित् / भैमीनलव्यलीकाणु-प्रश्नकामः परिभ्रमन् // 189 // अद्राक्षीदिति / कलिः युगाधमः, भैमीनलयोः दमयन्तीनैषधयोः, व्यलीकाणोः अकार्यलेशस्य, किञ्चिन्मात्रदोषस्यापीत्यर्थः / 'व्यलीकमप्रियाकार्यवैलक्ष्येष्वपि पीढने' 1. 'वरमैच्छत्' इति पाठान्तरम्। 2. 'किञ्चिन्न' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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