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________________ 602 नैषधमहाकाव्यम् / शोभती है अपितु वह भूषण ही इस दमयन्तीके द्वारा अधिक शोभता है, ऐसी विचार ( वास्तविकताका ज्ञान ) की निपुणता किसको हुई अर्थात् किसीको नहीं। [ दमयन्तीकी शोभा भूषणों के विना ही चरम सीमापर पहुंची थी, फिर भी चतुर सखियोंने उसे विशेष. रूपसे अलंकृत किया तथा 'यह अब अधिक शोमतो है। ऐसा समझा, किन्तु किसीने इस वास्तविक तत्वको नहीं समझा कि 'दमयन्तीके शरीरसंसर्गसे ये भूषण ही शोभित हो रहे हैं, भूषणोंसे दमयन्ती नहीं शोभती'। अथवा-शोमाकी परमावधि दमयन्तीको भूषणों से विज्ञ सखियोंने अलंकृतकर बारम्बार देखा, ऐसा वास्तविक विचारचातुर्य किसी सखीमें नहीं हुआ जो यह समझे कि 'दमयन्ती भूषणोंसे नहीं शोमतो, अपितु भूषण ही दमयन्तीके शोभते हैं। ( अथवा-...."बारम्बार देखा, किन्तु 'ये भूषण व्यर्थ हैं ? साधारण हैं ? या अधिक शोभाकारक हैं ?' यह विचारचातुर्य (निर्णय-क्षमता ) किसीको हुआ अर्थात् किसीको नहीं, अपितु सब सखियां विज्ञ होती हुई भी इसके निर्णय करने में असमर्थ ही रहीं / अथवा-"."उक्त विचारचातुर्य किसीको हा हुआ, सबको नहीं। अथवा-उक्त विचारचातुर्यक अर्थात् ब्रह्माको (या-मुझे = ग्रन्थकर्ता श्रीहर्ष कविको ) ही हुआ, और दूसरे किसीको नहीं ] // 27 // विधाय बन्धूकपयोजपूजनं कृतां विधोर्गन्धफलोबलिश्रियम् / निनिन्द लब्धाधरलोचनार्चनं मनःशिलाचित्रकमेत्य तन्मुखम् // 28 / / विधायेति / लब्धम् अधियतम्, अधराम्यामोष्ठाभ्यां, लोचनाभ्याश्च अर्चनं येन तत् तादृशम् अधरलोचनाभ्यांरमणीयमित्यर्थः। तन्मुखं भैमीवदनं कत्त मनःशिलया पीतवर्णधातुविशेषेण, चित्रकं तिलकम् 'तमालपत्रतिलकचित्रकाणि विशेषकम्' इत्यमरः, एत्य प्राप्य, विधोः चन्द्रस्य, बन्धूकेन बन्धूजोवकाख्यरक्तवर्णकुसुमेन, पयोजाभ्यां नीलोत्पलाभ्याश्च, पूजनं विधाय कृत्वा, कृतां गन्धफल्या पीताभचम्पककलिकया 'अथ चाम्पेयश्चम्पको हेमपुष्पकः / एतस्य कलिका गन्धफली स्यात्' इत्यमरः, बलेः पूजनस्य, श्रियं शोभां, निनिन्द, अधरायश्चितं तन्मुखं बन्धूकायश्चितं चन्द्रबिम्बमिव बभौ इत्यर्थः // 28 // अधर तथा नेत्रोंसे रमणोय उस (दमयन्ती) का मुख मैनसिलके तिलकको प्राप्तकर अर्थात् मैनसिलके तिलक लगाने पर दुपहरिया तथा कमलके फूलोंसे पूजितकर चम्पाकी कलीसे दी गयी बलिवाले चन्द्रमाको शोभाको निन्दित किया अर्थात् उक्त चन्द्रसे अधिक शोभित हुआ। [ दो दुपहरियाके फूल और दो कमलके फूलोंसे चन्द्रमाकी पूजाकर चम्पाकी कली ऊपर रखनेपर जो शोमा चन्द्रमाकी होगी, उससे अधिक शोभा दोनों ओठ तथा दोनों नेत्रोंसे रमणीय दमयन्ती के मुखकी मेनसिलके तिलक लगाने पर हुई। यहांपर ओष्ठोंका दुपहरियाके फूल, नेत्रों का कमलके फूल, मुखका चन्द्रमा और मैनसिल-तिलकका चम्पाकी कलीके साथ उपमानोपमेयमाव समझना चाहिये ]. // 28 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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