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________________ पञ्चदशः सर्गः। महीमघोना मदनान्धतातमीतमःपटारम्भणतन्तुसन्ततिः / अबन्धि तन्मृर्द्धजपाशमञ्जरी कयापिधूपग्रहधूमकोमला // 26 // महीति / महीमघोनां भूदेवेन्द्राणां, या मदनान्धता काममूढता, सैव तमी रजनी 'रजनी यामिनी तमी' इत्यमरः / तस्याः तमः एव पटः वस्त्रं, तस्य आरम्भणे निर्माणविषये, तन्तुसन्ततिः तदर्थ तन्तुपुञ्जवत् स्थिता इत्युत्प्रेक्षा, थूपग्रहस्य धूमग्र. हणसाधनीभूतपात्रविशेषस्य, यः धूमः दह्यमानकर्पूरचन्दनादिजन्यसुगन्धिधूमः, तेन कोमला रम्या, तन्मूर्द्धजपाशमारी दमयन्तीकेशपाशवल्लरी, कयाऽपि सख्या, अबन्धि बद्धा // 29 // राजाओंकी काममूढता-रूपिणी रात्रिके अन्धकार रूप वस्त्रके निर्माण ( बुनने ) में सूत्र-समूहके समान तथा धूपदानीके धूएंसे कोमल ( कुछ सूखनेसे मृदु ) उप्त ( दमयन्ती ) के केश-समूहरूपिणी मजरीको किसी ( केश-रचनामें निपुण सखी) ने बांधा। [ स्नान कर वस्त्रालङ्कार पहनने के बाद केश बांधने में चतुर किसी सखीने दमयन्तीके ( लम्बे तथा सुगन्धयुक्त होनेसे ) मञ्जरीके समान केशोंको धूपसे सुगन्धितकर बांधा, वे केश ऐसे थे कि नलपररायण दमयन्तीको समझते हुए भी राजालोग उन्हें देखकर काम-मोहित हो रहे थे, अत एव वे केश उनकी काममूढतारूपिणी रात्रिके अन्धकाररूपी वस्त्र बनानेके सूत (धागे) के समूहके समान थे / राजालोग काला वस्त्र पहनकर रात्रिमें निकलते हैं, अतः उस काले वस्त्रको बनानेमें वे केशसमूह सूतसमूह अर्थात् निमित्तकारणभूत थे ] // 29 // पुनः पुनः काचन कुर्वती कचच्छटाधिया धूपजधूमसंयमम् / सखीस्मितैस्तर्किततन्निजभ्रमा बबन्ध तन्मूर्द्धजचामरं चिरात् / / 30 / / पुनः पुनरिति / कचच्छटाधिया भैमीकेशपाशभ्रान्त्या, धूपजधूमस्य पुनः पुनः संयम बन्धनं, कुर्वती इति भ्रान्तिमदलङ्कारः। काचन काऽपि सखी, सखीनां स्मितैः तर्कितः ऊहितः, सः पूर्वोक्तः, निजभ्रमः यया सा तादृशी सती, चिरात् बहुकालेन, तस्या मूर्द्धजाः चामरमिव तत् , बबन्ध // 30 // ___ केश-समूहके भ्रमसे बार-बार धूपके धुंएं को बांधती हुई किसी सखीने ( समीपस्थ सखियोंके ) हँसनेसे अपने भ्रमका तर्ककर उस ( दमयम्ती ) के केशरूप (श्याम ) चामरको देरसे बाँधा // 30 // बलस्य कृष्टेव हलेन भाति या कलिन्दकन्या घनभङ्गभङ्गुरा / तदाऽपिंतैस्तां करुणस्य कुडमलैजहास तस्याः कुटिला कचच्छटा।।३।। ___ बलस्येति / या कलिन्दकन्या कालिन्दी, बलस्य बलभद्रस्य, हलेन लागलेन, कृष्टेव अद्यापि आकर्षणविशिष्टेव, धनः निरन्तरैः, भङ्गः तरङ्गैः, भङ्गुरा कुटिला, भाति तस्याः दमयन्त्याः, कुटिला वक्रा, कचच्छटा केशपाशः, तदा प्रसाधनकाले, अपितैः शिरसि न्यरतैः, करुणस्य वृक्षशेषरय, करुणरतु रसे वृक्ष' इति विश्वः / कुडमलै
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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