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________________ द्वाविंशः सर्गः। एतदर्थक 'भासाममाव एव तमः' इस सूत्रके अविरोधके लिए व्योमशिवाचार्यादिने छः पदार्थोके वैधhसे अभावरूप तमको युक्तियुक्त माना है, किन्तु श्रीधराचार्यने 'आरोपित भूरूप ही अन्धकार है' ऐसा निश्चयकर 'तेजोंके अभावमें वास्तविक रूपसे अन्धकारका शान होनेसे तेजोभाव ही तम है' ऐसा कहकर सूत्रके विरोधका परिहार किया है। परन्तु उदयनाचार्यने 'तेजों के अभावको ही अन्धकार' मानकर श्रीधराचार्यके मतका खण्डन कर दिया है ] // 35 // म्लानिस्पृशः स्पर्शनिषेधभूमेः सेयं त्रिशङ्कोरिव संपदस्य / न किंचिदन्यत्प्रति कौशिकीये दृशौ विहाय प्रियमातनोति / / 36 // ग्लानोति / म्लानिस्पृशः कालिमस्पर्शिनः श्यामस्य, अथ च, चण्डालत्वान्मा. लिन्ययुक्तस्य नि:श्रीकस्य / तथा,-अभावरूपत्वात् स्पर्शगुणनिषेधस्य भूमेः स्थानस्य, अथ च,-चण्डालस्वादेवास्पृश्यस्यास्य तमसः राज्ञत्रिशोरिव सेयं प्रसिद्धा प्रत्यतेण गृह्यमाणा च संपत् बाहुल्येन स्वरूपलाभः, अथ च,-राज्यसमृद्धिः कौशिकीये औलुके, अथ च,-वैश्वामित्रे दृशौ नेत्रे विहायान्यत्किंचित्प्रति अपरं किमपि वस्तु लक्ष्यीकृत्य प्रियं हितं नातनोति करोति, किंतु तदीये एव नेत्रे लक्ष्यीकृत्य हितं करोति / अन्यत्प्रति किंचिदल्पमपि प्रियं नातनोतीति वा, अन्धकारे झलकनेत्रे एव पदार्थान्पश्यत इति तत्संपत्तयोः प्रिया। त्रिशोश्च संपद्विश्वामित्रस्यैव नेत्रयोः प्रिया, नान्यस्य / एतदुपाख्यानं रामायणादौ प्रसिद्धम् / कौशिकीये, 'वृद्धाच्छः'। मालिन्ययुक्त, अभावरूप होनेसे अस्पर्शाई इस अन्धकारको प्रत्यक्ष दृश्यमान बहुलता उल्लके नेत्रों के अतिरिक्त दूसरे किसीके प्रति उस प्रकार हित नहीं करती है, (किन्तु अन्य किसीको इस अन्धकार बाहुल्यमें कोई पदार्थ दिखलाई नहीं पड़नेसे यह इस अन्धकारबाहुल्यसे उल्लूके नेत्रोंको ही हित होता है ), जिस प्रकार ( वसिष्ठ मुनिके शापसे) चण्डाल होने के कारण मलिनतायुक्त तथा स्पर्शके अयोग्य इस प्रसिद्ध त्रिशङ्क नामक राजाकी राज सम्पति विश्वामित्र मुनिके नेत्रों के अतिरिक्त दूसरे किसीके प्रति प्रियकारिणी नहीं थी अर्थात् उस त्रिशङ्कुकी राज-सम्पत्तिको देखकर विश्वामित्र ही प्रसन्न हुए दूसरा कोई प्रसन्न नहीं हुआ ] // 36 // पौराणिक कथा-जब महर्षि वसिष्ठजीके शापसे राजा त्रिशङ्क चाण्डाल हो गये तब उन्होंने यज्ञ करके सशरीर स्वर्ग जाना चाहा, किन्तु जब उनको यज्ञ करानेके लिए कोई ऋत्विज नहीं मिला तब वे वसिष्ठजीके परम वैरी विश्वामित्रजीके पास जाकर अपनी इच्छा प्रकट किये और विश्वामित्रजी मी यज्ञ कराकर उन्हें सशरीर स्वर्गमें भेजनेकी प्रतिज्ञाकर यज्ञ कराने लगे / इसके अनन्तर स्वर्गमें जाते हुए राजा त्रिशङ्कको चाण्डाल होनेसे देवोंके द्वारा अधोमुखकर नीचेकी ओर गिराये जाते हुए देखकर विश्वामित्रजी स्वर्ग तथा भूलोकके वीच में ही दूसरा स्वर्ग बनाने लगे, जिसे ब्रह्माजीने स्वयं आकर विश्वामित्रको वैसा करनेसे रोका और 'त्रिशङ्क' को वहीं रहनेका स्थान दिया, जो अब तक तारारूपमें वहीं विद्यमान है। 65 नै० उ०
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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