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________________ सप्तदशः सर्गः। 1089 बनायी जा सकने वाली कच्छप आदि (वाराह, नरसिंह 'आदि) के चियुक्त बिलोंवाली ( गण्डकी नदीसे निकलनेवाली ) शिला ( शालग्रामकी मूर्ति ) तुम लोगोंको ईश्वरमार्गमें (अथवा-वैदिकमार्गमें ) क्यों नहीं विश्वास कराती है। [गण्डकी नदीमें मिलनेवाली मनुष्योंसे नहीं बनाये जा सकनेवाले कच्छप, वराह, नरसिंह आदि चिह्नोंसे युक्त बिलोंवाली शालग्रामकी मूर्तिको देखकर भी तुम लोगोंको ईश्वर (या-वैदिकधर्म ) में विश्वास नहीं होता, अत एव तुम लोग महामूर्ख मालूम पड़ते हो ] // 102 // शतक्रतूरुजाद्याख्या-विख्याति स्तिकाः ? कथम् / श्रुतिवृत्तान्तसंवादैन वश्चमदचीकरत् ? // 103 / / शतेति / नास्तिकाः ! रे नास्तिपरलोकाः ! शतक्रतुः शताश्वमेधयज्ञकारी इन्द्रः, उरुजः विष्णोरूरुदेशसम्भूतः वैश्यः, स आदियषां ते ब्राह्मणक्षत्रियादयः तेषामाख्याः शतक्रतुः उरुजः बाहुजः मुखजः पादज इत्यादीनि नामानि, तासां विख्यातिः प्रसिद्धिः, अतिवृत्तान्त संवादैः श्रतिषु वेदेषु, याशा वृत्तान्ताः 'शताश्वमेधक्रतुकारी इन्द्रो भवति' इतीन्द्ररयेच शतऋतुत्वं 'ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत्' इत्यादिना ब्राह्मणस्यैव मुखजस्वं वैश्यस्यैवोरजत्वम् इत्यादयो वेदोक्ता इतिहासाः, तेषां संवादः श्रत्युक्तवृत्तान्तेन सह लोक व्यवहारस्य मेलनदर्शनरित्यर्थः / लोकेन इन्द्रस्यैव शतक्रतुनाम व्यवहियते न तु अन्यदेवानां, ब्राह्मणस्यैव मुखजत्वं व्यवहियते न स्वन्यवर्णानाम् इत्यादिव्यवहार करणैरिति यावत् / व युष्मान् , कथं न चमदची. करत ? न व्य सिरम यत् ? श्रुतिवृत्तान्तरय लोकस्यवहारेण ऐवयदर्शनात् कथं श्रुतिः प्रमाणस्वेन युष्माभिः न स्वीक्रियते ? इति भावः // 103 // __ हे नास्तिको ! शतवतु ( सौ अश्वमेध यज्ञ करनेवाला = इन्द्र) तथा ऊरुज (विष्णुके करसे उत्पन्न वैश्य ) आदि (मुखजब्राह्मण, बाहुज-क्षत्रिय और पज्ज-शूद्र ) नामकी प्रसिद्ध वैदिक वचनसे सङ्गत होने के कारण तुम लोगोंको क्यों नहीं आश्चर्यित (होनेसे वेदमें विश्वास युक्त ) करती है / ( अथवा-शतक्रतु अर्थात् इन्द्र आदि ( अग्नि, धर्मराज, मैं= वरुण आदि देव ) तथा उरुजा अर्थात् उर्वशी आदि ( मेनका, तिलोत्तमा, रम्भा आदि अप्सराएँ ) नामों की प्रसिद्धि...........")। [ 'शताश्वमेधवारीन्द्रो भवति' (सौ अश्वमेध यज्ञ करनेवाला इन्द्र होता है ) ऐसे वैदिक वचन के अनुसार लोकमें भी 'शतक्रतु' शब्द 'इन्द्र' के लिए ही प्रसिद्ध है तथा 'ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत्..... ...' (विष्णुके मुखसे ब्राह्मण, बाहुसे क्षत्रिय, ऊरुसे वैश्य और 'चरणसे शूद्र उत्पन्न हुए ) इस वैदिक वचनके अनुसार लोकमें भी 'उरुज' शब्द 'वैश्य' के लिए ( इसी प्रकार 'मुखज' शब्द ब्राह्मण के लिए, 'बाहुज' - शब्द क्षत्रियके लिए और 'पज्ज' शब्द शूद्रके लिए) ही प्रसिद्ध है इन प्रसिद्धि यों को देखकर भी तुम नास्तिक लोगों को अपने मतको त्यागनेके लिए आश्चर्यित होकर और वैदिक मतपर विश्वास करना चाहिये। द्वितीय अर्थमें-वेदों में इन्द्रादि देव तथा उर्वशी
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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