________________ 1010 नैषधमहाकाव्यम् / आदि अप्पराओं को स्वर्गमें रहने का वर्णन मिलता है, उन इन्द्र, भग्नि, धर्मराज आदि देवों तथा उर्वशी, रम्भा आदि अप्सराओं को यहां प्रत्यक्षमें देखकर भी तुम लोगोंको आश्चर्य तथा वैदिक वचनों पर विश्वास होना चाहिये, वह नहीं होता, अतः तुम लोग जडतम हो ] // 103 // तत्तज्जनकृतावेशान् गयाश्राद्धादियाचिनः / भूताननुभवन्तोऽपि कथं श्रद्धःथ न श्रुतीः ? / / 104 / श्रुतेः प्रामाण्यमेव कुतः ? इत्याशङ्कय तदेव द्वाभ्यामुपपादयति-तदित्यादि / तेषु तेषु जनेषु लोकेषु, कृतावेशान् तन्मुखेन यत्किञ्चित् 'याचितुं कृताधिष्ठानान् , गयाश्राद्धादियाचिनः प्रेतत्वादिविमोचककर्मयाचकान् , भूतान् प्रेतयोनिभेदान् , अनुभवन्तः प्रत्यक्षेग पश्यन्तः अपि, अतीः तद्विधायकवेदान् , कथं न श्रद्धत्य ? न विश्वसिथ ? // 104 // उन-उन ( स्वजनों या तटस्थ तृतीय लोगों ) में आविष्ट तथा ( अपनी सद्गति ह ने के लिए ) गया श्राद्धादि की याचना करते हुए (प्रेतादि योनियोंको प्राप्त ) जीवों को देखते हुए भी तुम ल ग वेदों पर क्यों नहीं श्रद्धा (विश्वास) करते हो ? [ इस वचनको वरुणोक्त होनेसे 'या वतः एवं गयाश्राद्धं' (17189) इस इन्द्रोक्त वचनके साथ पुनरुक्ति नहीं समझनी चाहिये / इसी प्रकार अग्रिम वचन के विषय में भी जानना चाहिये ] // 104 / / नामभ्रमाद् यमं नीतानथ स्वतनुमागतान् / संवादवादिनो जीवान् वीक्ष्य मा त्यजत श्रुतीः / / 105 // नामेति / किञ्च, नामभ्रमात् नामसाम्यकृतभ्रान्तः, यमं 'परेतराजम् , नीतान् यमदूतैः प्रापितान् , अथ अनन्तरम्, भ्रान्तिशोधनार्थ यमेन पुनः मर्त्यलोकप्रेरणा. नन्तरमित्यर्थः / स्वतनुम् आगतान् अप्राप्तकालत्वात् पुनर्यमाज्ञया स्वशरीरं प्रवि. ष्टान् , संवादवादिनः वेदोक्त्या सह ऐक्यवादियमलोकवृत्तान्तकथकान् , जीवान् मान् , वीक्ष्य अवलोक्य, श्रुतीः वेदान् , मात्यजत न जहीत, एकत्र प्रामाण्यदर्श नादत्राप्यश्रद्धा न कार्या इति भावः // 105 // नामके भ्रम ( सादृश्य) होनेसे यमराज के पास पहुँचाये गये इसके बाद ( असमयमें मृत्यु होनेसे ) पुनः अपने पूर्व शरोरमें लौटे हुए ( वेद-स्मृति-पुरागादि शास्त्रोंमें प्रतिपादित स्वर्ग-नरकादिके समान ही ) सङ्गन कहते ( स्वर्गादि-वर्णन करते ) हुए जीवोंको देखकर वेदों ( तथा तन्मूलक स्मृति आदि शास्त्रों ) का त्याग मत करो ( उन्हें अप्रामाणिक मत कहा, किन्तु उन पर विश्वास करा ) // 105 // संरम्भैर्जम्भजैत्रादेः स्तभ्यमानाद् बलाद् बलन् / 1. 'राजाहःसखिभ्यष्टच' इति टचि ‘परेतराजम्' इत्यस्यैवौचित्यान्मया प्राक्तनः 'परेतराजानम्' इति पाठस्त्यक्तः।