SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 861 चतुर्दशः सर्गः। कर्मणि लुङि चिणि 'विभाषा चिण्णमुलोः' इति विकल्पान्नुमागमः, 'तिङश्च' इति तमप-प्रत्यये 'किमेत्तिङव्यय-' इत्यादिना आमुः / यथा स नलः, कन्दर्पस्य लक्षीकरणाय अर्पितस्य शराभ्यासकाले शरव्यत्वेन स्थापितस्य, स्तम्भस्य स्थूणायाः, 'स्तम्भो स्थूणाजडीभावौ' इत्यमरः / दम्भं व्याजत्वं, भावप्रधानो निर्देशः। 'व्याजदम्भोपधयः' इत्यमरः / चिरम् आपत् प्रापत् // 56 // नलने ( वरमालाके पहनानेके समयमें ) दमयन्तीके हाथके स्पर्शसे उत्पन्न हर्षके अनुभावसे पैदा हुए (पाठा०-हर्षके प्रसादरूप ) स्तम्भ ( क्रियाशून्यताजनक 'स्तम्भ' नामक भाव ) को उस प्रकार प्राप्त किया, जिस प्रकार वे ( नल ) लक्ष्यवेधके अभ्यासके लिए कामदेवके द्वारा गाड़े गये खम्भेके व्याजको बहुत देर तक प्राप्त कर लिये। [ वरमाला पहनाते समय दमयन्तीके हाथके स्पर्शसे नलका शरीर स्तम्भवत् क्रियाशून्य होनेसे कामदेवके द्वारा लक्ष्यवेधके लिए गाड़े गये खम्भेके समान हो गया / वे दमयन्तीके हाथके स्पर्शसे अत्यन्त कामपीड़ित हो गये ] // 56 // उत्सृज्य साम्राज्यमिवाथ भिक्षां तारुण्यमुल्लङ्घय जरामिवारात् / तं चारुमाकारमुपेदय यान्तुं निजां तनूमादधिरे दिगिन्द्राः // 57 / / उत्सृज्येति / अथ नलवरणानन्तरं, दिगिन्द्राः इन्द्रादिदिक्पालाः, यातुं गन्तुं, स्वर्गमिति शेषः, सम्राजतीति सम्राट महाराजविशेषः, 'येनेष्टं राजसूयेन मण्डलस्येश्वरश्च यः / शास्ति यश्चाज्ञया राज्ञः स सम्राड्' इत्यमरः / 'सत्सूद्विष-' इत्यादिना विप , 'मो राजि समः क्वौ' इति समो मकारस्य मकारत्वान्नानुस्वारः / तस्य भावः कर्म वा साम्राज्यं चक्रवर्तिपदम्, उत्सृज्य त्यक्त्वा, क्षीणपुण्यत्वादिति भावः, भिक्षां याच्जामिव, तारुण्यं यौवनम्, उल्लङ्घय अतिक्रम्य, जरामिव आरात् नलसमीपे स्वयंवरसभायामेवेत्यर्थः, तं चारुं सुन्दरम्, भाकारं नलरूपम्, उपेक्ष्य हित्वा निजां तनूं सहस्रनेत्रादिविशिष्टाकारम्, आदधिरे स्वीचक्रुः // 57 // ___ इस (नर-वरण ) के बाद दिक्पालों ( इन्द्रादि चारों देवों) ने साम्राज्यको छोड़कर भिक्षाके समान तथा यौवनावस्थाको छोड़कर वृद्धावस्थाके समान स्वर्ग जानेके लिये (पाठा०स्वर्गको जाते हुये ) उस सुन्दर आकार ( नलके रूप ) को छोड़कर अपने शरीर ( सहस्रनेत्रत्व आदि) को नलके समीपमें ग्रहण कर लिया। [ नलके सुन्दर आकारको साम्राज्य तथा युवावस्थाके साथ और इन्द्रादिके शरीरको भिक्षा और वृद्धावस्थाके साथ उपमा देकर यहां पर नलाकारकी अपेक्षा इन्द्रादिके शरीरको अत्यन्त तुच्छ तथा साम्राज्यका त्यागकर भिक्षावृत्तिको तथा यौवनावस्थाका त्यागकर वृद्धावस्थाको पानेवाले व्यक्तिके समान इन्द्रादि दिक्पालोंको नलके आकारका त्याग करनेमें अत्यन्त दुःख हुआ, यह बतलाया गया है / अथ च-लोकमें भी कोई विद्वान् मनुष्य दूसरेकी अत्युत्तम वस्तुको छोड़कर अपनी तुच्छ 1. 'यान्तोः ' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy