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________________ 660 नैषधमहाकाव्यम् / लंङ / अपि सम्भावनायां, नलस्य यथोरसि नृपान्तराणां तथा दृशोरपि न्यस्तमिति सम्भावयामीत्यर्थः, कथमन्यथा तेषामश्रद्गमः ? नृपस्य नलस्य तु, रागाद् दृगम्बुप्रति. विम्बि अनुरागोत्थाश्रप्रतिबिम्बितं, तन्माल्यं कत्त, पीतवतोः तृष्णया तन्माल्यं सादरं गिलतोरिव स्थितयोः, अक्षयोः प्रालम्बम् ऋजुभावेन लम्बमानं सत् 'प्रालम्बम्जु. लम्बि स्यात् कण्ठात्' इत्यमरः / अन्तः मध्ये, 'अन्तमध्ये तथा प्रान्ते स्वीकारेऽपि च दृश्यते' इति विश्वः / युक्तम् आलम्बत अवलम्बते स्म / अत्रापि राज्ञां द्वेषात् अरुच्या तत्प्रतिबिम्बि माल्यं युक्तम् अक्षिगतमेव कृतमित्युस्प्रेक्षा; नलस्य तु म्यातिरेकात् अतिभ्यां तत् तृष्णया पीतमित्युत्प्रेक्षितस्यैव बाह्यबिम्बिमाल्याध्यवसायभेदेन मध्ये प्रालम्बितया लम्बनमित्युत्प्रेक्षते // 55 // . (नलभिन्न ) राजाओंके मात्सर्यसे उत्पन्न अश्रु में प्रतिबिम्बित वरणमाला (उन नलभिन्न) राजाओं की आँखमें स्थित-सी हो ( कृश-सी) गयी, तथा ( स्वयंवरमें दमयन्तीके स्वीकार करने के कारण ) हर्षसे उत्पन्न नलके अश्रुमें प्रतिबिम्बित वह वरणमाला पान करती (प्रेमपूर्वक सादर देखती ) हुई नलकी आँखमें सरलतासे लटकती हुई सीधी मालाके रूपमें स्थित हुई, यह उचित ही है / ( अथवा-दमयन्तीने नल-विषयक अनुरागसे उनके कण्ठ में जिस प्रकार वरणमालाको पहनाया, उसी प्रकार नल-भिन्न राजाओं के प्रति द्वष होनेसे मानो उनके नेत्रोंमें मालाको डाल दिया ( इसी वास्ते उन राजाओंके नेत्र लाल हो गये हैं, आँस निकलने लगे हैं तथा उस आंसू (प्रतिबिम्बित ) वह वरणमाला दीख रही है ) / [ लोकमें भी कोई व्यक्ति किसीके प्रति द्वेष होने पर उसकी आँखोंमें अङ्गुली आदि डाल देता है तो उसकी भाँखें लाल हो जाती हैं उनसे आँसू आने लगते हैं और वह व्यक्ति मुख फेर लेता है / राजाओंने भी नलके कण्ठमें वरणमाला पड़नेपर दमयन्तीकी प्राप्ति नहीं होने के कारण नल-विषयक द्वेष होनेसे उस मालाका नलके कण्ठमें पड़ना नहीं सहन किया और मात्सर्यसे उनके नेत्र आँसूसे भर गये तथा लाल हो गये और उन्होंने मुख फेर लिया। पाठा०-नलके नेत्र के भीतरी भागने हर्षसे विस्फार ( वृद्धि) को स्वीकृत किया अर्थात् वरणमालाके कण्ठमें पड़नेपर नल उसे आँख फाड़कर अच्छी तरह देखने लगे, यह उचित ही है। किसी दुर्लभ वस्तुके प्राप्त होनेपर उसे आँख फाड़कर देखना लोक-प्रसिद्ध है। नलके नेत्र हर्षसे तथा दूसरे राजाओंके नेत्र मात्सर्यसे अश्रुपूर्ण हो गये ] // 55 // स्तम्भस्तथाऽलम्भितमा नलेन भैमीकरस्पर्शमुदः प्रभावः / कन्दर्पलक्षीकरणार्पितस्य स्तम्भस्य दुम्भं स चिरं यथाऽऽपत् / / 56 / / स्तम्भ इति / नलेन मैमीकरस्पर्शेन माल्यप्रदानकाले दमयन्तीपाणिस्पशन, या मुत् आनन्दः तस्याः, प्रभावः तदनुभावजात इत्यर्थः, स्तम्भः निष्क्रियाङ्गत्वलक्षणः सात्विकविशेषः, तथा तेन प्रकारेण, अलग्भितमाम् अतिशयेन अलम्भि, लभेः 1. 'प्रसादः' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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