SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 795
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1462 नैषधमहाकाव्यम् / दुःखिता विलोकनादिनाऽनुग्रहीतुमर्हा भवतीत्युक्तिः। येयं पश्चिमा दिक् लाक्षापयसालक्तकरसेन कृत्वा केनाप्यक्षालीव क्षालितेव / तथा-कुङ्कुमस्य पङ्कः कृत्वा केनाप्यपू. रीव पूरितेव / एवंविधा रक्ता दृश्यते, यतस्तस्माद्रमणीयामेतां विलोकयेत्यर्थः // 3 // ( हे प्रिये ! ) जलाधिप ( वरुण ) की स्त्रीरूपिणी दिशा अर्थात पश्चिम दिशाको अच्छी तरह देखनेसे अनुगृहीत करो ( अथवा-पहले देखनेसे और बादमें वर्णन करनेसे अनुगृहीत करो, अथवा-तबतक देखनेसे अनुगृहीत करो, जब तक चन्द्रोदय होनेसे इसको अरुणिमाका सौन्दर्य नष्ट नहीं होता ); जिस (पश्चिम दिशा) को (किसीने ) लाक्षारससे मानो धो दिया है तथा कुङ्कम के पकोंसे परिपूर्ण कर दिया है। (पक्षा०-'ड' तथा 'ल' का अभेद मानकर 'जडाधिप' अर्थात् अतिशय जडकी स्त्रीको देखनेसे अनुगृहीत करो, क्योंकि अतिशय जडकी स्त्रीको देखकर अनुगृहीत करना उचित है)॥३॥ उच्चस्तरादम्बरशैलमौलेश्च्युतो रविगैरिकगण्डशैलः / तस्यैव पातेन विचूर्णितस्य संध्यारजोराजिरिहोजिहीते // 4 // उच्चैरिति / हे प्रिये ! रविरेव गैरिकाख्यधातुविशेषसम्बन्धी गण्डशैलः उच्चतरा. दत्युनतादम्बरशैलस्य गगनगिरेमौंले शिखरात्सकाशाच्च्युतः पतितः स्थूलपाषाण एवाधः पतितः, अथ च,-संनिहितः, पातेनोवतरगिरिशिखरादधःपतनेन हेतुना विचूर्णितस्य विशेषेण सूचमचूर्णीकृतस्य तस्यैव गैरिकगण्डशैलस्य संबन्धिनी संध्यव रजोराजिः, संध्यासंबन्धी राग इत्यर्थः। इह सायंकाले पश्चिमदिशि वा उजिहीते उपरिष्टात्प्रसरति / अस्तसमये सूर्यस्य रक्तवादगन गिरिशिखराच्च्युतत्वाच गैरिक. गण्डशैलत्वम् / उच्चतरा प्रदेशात्पतितो गण्डशैलश्चूर्णीभवति, चूर्णीभूतस्य च रजोराजिरूर्व प्रसरति, तद्रजोराजिरेव संध्यारागः प्रायेणोध्वं प्रसरतीत्यर्थः // 4 // गेरूका चट्टानरूपी यह सूर्य अत्यन्त ऊँचे आकाशरूपी पर्वतके शिखरसे गिर पड़ा है और गिरनेसे अत्यन्त चूर्ण ( चकनाचूर ) हुए उसीका सन्ध्यारूपी धूलि-समूह यहां (पश्चिम. दिशामें ) उड़ रहा है। [ सायवालमें सूर्यको रक्तवर्ण होनेसे गेरु के चट्टानकी तथा आकाशको अत्युन्नत पर्वतकी कल्पना की गयी है / ऊँचे स्थानसे गिरे हुए चट्टानका चकनाचूर होना और उसके धूलि-समूहका ऊपरको उड़ना उचित ही है ] // 4 // अस्ताद्रिचूडालयपक्कणालिच्छेकम्य कि कुक्कुटपेटकस्य | यामान्तकूजोल्लसितैः शिखौधैदिग्वारुणी द्रागरुणीकृतेयम् / / 5 // अस्तेति / हे प्रिये ! कुक्कुटानां पेटकस्य समूहस्य यामान्ते प्रहरान्ते या कूजा शब्दितं तद्वशादुल्लसितैः प्रकाशमानैः किंचिदुचीभूतैरुत्फुल्लजपाकुसुमतुल्यः शिखानां शिरसि रक्तचममयकेसराणामोघव॒न्दैः किमियं वारुणी दिक् द्राक् अकस्मादरुणीकृता रक्तीकृता / उत्प्रेक्षा / किंभूतस्य ? अस्ताद्रेश्चूडा शिखरं सैवालयः स्थानं यस्य स पक्कणः शबरगृहं तस्यालिः समूहस्तत्रच्छेकस्यासकस्य शबरेहेषु संगृहीतस्य / कुक्कु.
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy