________________ 1474 नैषधमहाकाव्यम् / टेढ़ा चलनेवाली होती है और उसे देखकर डरसे मनुष्य, पशु, पक्षी आदि परस्पर सन्निधिभावको छोड़ कर ( दूर हटकर ) 'यह सर्पिणी है' ऐसा रो-रोकर चिल्लाते हैं, उससे दूसरे लोग 'यह मर्पिणी है। ऐसा मालूम करते हैं ] // 129 // अथ रथ चरणो विलोक्य रक्तावतिविरहासहताऽऽहताविवानः / अपि नमत पद्मसुप्तिकालं श्वसनविकीर्णसरोजसौरभ सा / / 130 / / ____ अथेति / अथ क्रीडासरिदर्शनानन्तरम, सा दमयन्ती, रथचरणौ चक्रवाकयुगलौ, अतिविरहस्य समस्तरजनीव्यापितया दीर्घवियोगस्य, असहतया अक्षमतया, आहतो प्राप्ताघातौ, कामशरविद्धतया कानरौ इत्यर्थः / द्विधा भूती इत्यर्थश्च / अत एव अनैरिव रुधिरै रिव, रक्तौ रक्तवर्णी, अनुरक्तौ च, विलोक्य दृष्ट्वा, तम् आसन्नम् , पद्मानां कमलानाम, सुप्तिकालमपि सङ्कोचसमयमपि, सायंसमयमपीत्यर्थः / श्वसनेन चक्रवाकदुःखदर्शनेन स्वस्या अपि दुःखमूचकदीर्घनिःश्वासेन, विकीर्ण विक्षिप्तम् , सरोजसौरभं पद्मसौगन्ध्यं यस्मिन् तं तादृशम् , अकृत कृतवती, तदा सन्ध्यासमये पद्मसङ्कोचात् तत्सौरभासम्भवेऽपि स्वस्याः पद्मिनीजातीयत्वात् , पद्मिन्याश्च पद्म सुगन्धिश्वासवायुत्वात् निःश्वासमोचनेन पद्मसौगन्ध्यं विस्तारयति स्म इति भावः॥ ___ इस ( क्रोडा नदीको देखने ) के बाद उस ( दमयन्ती ) ने ( रातमें होनेवाले ) विर हकी असह्यतासे आहत हुए ( अत एव ) रुधिरोंसे मानो रक्तवर्ण ( पक्षा०-अनुराग युक्त, यास्वभावतः रक्तवर्ण ) चकवा तथा चकईको देखकर उस कमलों के सोने ( मुकुलित होने ) के समय अर्थात् सन्ध्याकालको ( चकवा-चकईके विरह दर्शनजन्य दुःखके कारण उत्पन्न) श्वास फेंकनेसे कमलकी सुगन्धिसे युक्त कर दिया। [ चकवा-चकई के विरहसे करुणाई दमयन्ती भी जब श्वास छोड़ने लगी, तब मालूम पड़ता था कि यह कमलके मुकुलित होनेसे सायङ्कालका कमल सौरमहीन जानकर स्वयं पद्मिनीजातीया स्त्री होनेसे कमलतुल्य सौरमको छोड़कर उस सायङ्कालको कमल-सौरभसे युक्त कर रही है / विरही नकवाचकइके दुःखसे सहृदया दमयन्तीका करुणार्द्र होना उचित ही था ] / / 130 / / अभिलपति पतिं प्रति स्म भैमी सदय ! विलोकय कोकयोरवस्थाम् / मम हृदयमिमौ च भिन्दती हा ! का इव विलोक्य नरो न रोदितीमाम् // ___ अभिलपतीति / भैमी दमयन्ती, पति नलम , प्रति उद्दिश्य, अभिलपति स्म उवाच, किमित्याह-सदय ! हे दयालो ! कोकयोः चक्रवाकयोः, अवस्थां दुर्दशाम् , वियोगजनितकार्यमिति यावत् / विलोकय पश्य, मम मे, हृदयं वक्षःस्थलम् , इमौ वियोगिनी कोको च, भिन्दती विदारयन्ती वियोजयन्तीञ्च, अनयोः कातरतादर्शन. जनितशोकात् , वियोगदःखदानाच्चेति भावः / इमां वियोगावस्थाम् , विलोक्य दृष्ट्वा, हा ! खेदे, कः इव नरः को वा जनः, न रोदिति ? न कन्दति ? अपि तु सर्व