SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 776
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एकविशः सर्गः। 1473 कहनेके बाद उक्त वचनको पुनः कहनेवाला जानना चाहिये / पिकके नेत्रको स्वभावतः रक्तवर्ण होने पर भी यहां राजाके प्रति अनुराग होनेकी श्लेषद्वारा उत्प्रेक्षा की गयी है ] // तुङ्गप्रासादवासादथ भृशकृशतामायती केलिकुल्यामद्राक्षोदकबिम्बप्रतिकृतिमणिना भीमजा राजमानाम् / वक्रं वकं ब्रजन्तीं फणियुवतिरिति त्रस्नुभिर्व्यक्तमुक्तान्योऽन्यं विद्रुत्य तीरे रथपदमिथुनैः सूचितामार्तिरुत्या // 129 / / तुङ्गेति / अथ कोकिलवचनानन्तरम् , भीमजा दमयन्ती, तुङ्गे अस्युनते, प्रासादे सौधे, वासात् अवस्थितेः हेतोः, भृशम् अत्यर्थम् , कृशतां क्षीणताम् , आयर्ती गच्छन्तीम् , विस्तृतत्वेऽपि प्रासादस्य अत्युचततया दमयन्तीशि अतिकृशस्वेन प्रतीयमानामित्यर्थः / दृश्यते हि सुदूरात् स्थूलमपि द्रव्यं कृशस्वेन लोके, अत्र प्रासा. दस्य तुङ्गतैव कुल्याया दूरत्वे हेतुर्बोद्धव्यः / तथा अर्कबिम्बस्य सूर्यमण्डलस्य, अस्तो. न्मुखत्वात् आरक्तस्येति भावः / प्रतिकृतिरेव प्रतिबिम्बमेव, तजलपतितेति भावः / मणिः बृहदाकारपद्मरागरत्नमित्यर्थः, तेन, राजमानां शोभमानाम, वक्र वक्रं कुटिलं कुटिलं यथा तथा, वजन्तीं गच्छन्तीम् , प्रवहन्तीमित्यर्थः। अत एव फणियुवतिः काचित् सर्पस्त्री इयम् , इति एवं विविच्य, त्रस्नुभिः भीरुमिः, रथपदानां चक्रना. म्नाम, मिथुनैः द्वन्द्वैः। कतभिः / व्यक्तं स्फुटमेव, मुक्तं त्यक्तम्, अन्योऽन्यं परस्परं यस्मिन् तत् यथा भवति तथा, तीरे कूलभागे, कुल्याया एव एकैकस्मिन् तीरे इत्यर्थः / विद्वत्य पलाय्य, आर्तिरुत्या दुःखस्वनेन साधनेन, निशागमनात् भावविर. हचिन्तया कातरस्वरेणेति भावः / सूचितां ज्ञापिताम् , ईषदन्धकारागमेन स्पष्ट न रश्यमानामपि चक्रवाकशब्दैः विदितामित्यर्थः / केलि कुल्यां क्रोडाथ कृत्रिमसरितम् / 'कुल्याऽरूपा कृत्रिमा सरित्' इत्यमरः / अद्राक्षीत् ऐतिष्ट // 129 // इसके बाद दमयन्तीने ऊँचे प्रासादपर रहने (बैठकर देखने ) से अत्यन्त पतली ज्ञात होती हुई, ( सायङ्काल में अस्तोन्मुख होने वाले अरुणवर्ण) सूर्यबिम्बके प्रतिकृति ( जलमें पड़तो हुई परछाही ) रूर मणिसे अरुणवर्ण होती हुई, टेढ़ी-टेढ़ी जाती ( बहती) हुई तथा गह सपिणो है' यह जानकर डरते हुए चक्रवाकमिथुनों (चकवा-चकहयोंकी जोड़ियों) से परस्पर-सानिध्यको छोड़कर तारपर भागकर ( सायङ्काल होनेसे आसन्न ) विरहजन्य रोदनसे सूचित क्रीडानदी (क्रीडार्थ छोटी नहर ) को देखा / [ दमयन्तीने उस क्रीडार्थ नहरको देखा, जो दमयन्तीके ऊँचे प्रासादसे दूरस्थ होने के कारण बहुत पतली मालूम पड़ती थी, जिसमें अरुण सूर्यबिम्ब प्रतिबिम्बित होकर उसे मी रक्तवर्ण कर रहा था, जो धोरे-धीरे बहती थी और जो अन्धकार होनेसे स्पष्ट नहीं देखे जानेपर भी भावी विरहके दुःखसे रोते ( बोलते ) हुए चकवा-चकईके शब्दसे यह नदो है ऐसा मालूम पड़ती थी और वह सर्पिणीके समान थी, क्योंकि सर्पिणी भी पतली मस्तकस्थ नागमणि रज्यमान,
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy