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________________ 1472 नैषधमहाकाव्यम् / भाव होनेसे (मुखको ) सङ्कुचित करती हुई अवास्तविक क्रोधित अपनी सखी ( दमयन्ती) के द्वारा अर्द्धदृष्टिसे देखी गयी वे ( सखियाँ तथा गन्धर्वराजकन्याएं ) राजाके सन्ध्या समयके बहुतसे ( सन्ध्यावन्दनादि ) कार्योको जानकर वहांसे चली गयीं। [ सन्ध्याकालमें कमल सङ्कुचित होता है, यहाँसे बाहर जाने के लिए शुकके कहनेपर मुझे बाहर जाने के लिए कहा जा रहा है अत एव उनको अपना मुख सङ्कुचित करनेपर कमलत्वके कारण सायंकालमें उनके मुखको सङ्कुचित होनेकी उत्प्रेक्षा की गयी है / अथवा-यह शुक हम लोगोंको बाहर जानेको कह रहा है, इसी वास्ते हमलोग यहाँसे जा रही हैं, इस प्रकार मिथ्या (व्याजपूर्वक) वे सखियाँ बाहर चली गयीं, किन्तु वास्तविकमें तो 'सम्भोगेच्छुक भी राजा नल सायङ्कालके सन्ध्यावन्दनादि कार्योको छोड़कर रमण नहीं करेंगे और न दमयन्ती ही सम्भोग करेगी' इस प्रकार नलके बहुत कार्यको ध्यानमें रखकर ही वे वहाँसे बाहर गयीं, उस समय दमयन्ती भी कुछ क्रुद्ध होकर अर्द्धदृष्टिसे उन्हें देखी / कुछ व्यक्तिका अर्द्धदृष्टि से देखना * वभाव होता है ] // 127 // अकृत परभृतः स्तुहि स्तुहीति श्रुतवचनस्रगनूक्तिचुचुचञ्चुम् / पठितनलनुतिं प्रतीव कीरं तमिव नृपं प्रति जातनेत्ररागः / / 128 / / अकृतेति / परभृतः कोकिलः, सख्या आनीत इति भावः। नृपं राजानम, तं नलम्, प्रति उद्दिश्य, जातः उत्पन्नः, नेत्रयोः नयनयोः, रागः रक्तवर्णता अनुरागश्च यस्य सः तादृशः सन् इव तस्य परमसुन्दराकारत्वादिति भावः / 'रागोऽनुरागे मात्सर्य क्लेशादौ लोहितादिषु' इति विश्वः / अत एव नृपस्तुतौकीरस्य प्रवर्तनमिति बोद्धव्यम् / श्रुतानाम् आकर्णितानाम्, वचनस्रजां वाक्यमालिकानाम्, अन्यमुखात् श्रुतवाक्यपरम्पराणामित्यर्थः / अनूक्तया अनुवचनेन, वित्ते विख्याते इति तादृश्यो 'तेन वित्तश्चञ्चपचणपौ'। चञ्च नोटिद्वयं यस्य तं तादृशम, एतेन नलस्तुतौ कीरस्य सामर्थ्यमस्तीति सूचितम् / तथा पठिता अधीता, उच्चरिता इत्यर्थः। नलस्य नैषधस्य, नुतिः स्तुतिः येन तं तादृशम्, कीरं शुकम्, प्रति लक्ष्यीकृत्य इव, स्तुहि स्तुहि स्तवं कुरु स्तवं कुरु, इति एवं ध्वनिम्, अकृत कृतवान् , पिको हि राजनि अनुरागाधिक्यात् नलस्तुतिविषये विरतं शुकं स्तुहि इति सहजरवम् उच्चार्य प्रोत्साहितवानिवेति भावः // 128 // ___ राजा ( नल ) के प्रति स्नेहयुक्त-सा ( अथच-स्वभावतः रक्तवर्ण नेत्रवाला ( 21 / 109) में वर्णित सखीके द्वारा लाया गया ) पिकने सुने गये (गन्धर्व-राजकन्याओंके वीणास्वरगत ) वचनको अनुवाद करने (दुहराने ) से युक्त चोचवाले ( उक्त वचनको दुहराकर कहते हुए तथा नलकी स्तुतिको पढ़े हुए ) उस तोतेसे 'स्तुहि, स्तुहि' (इस नल राजाकी और भी स्तुति करो, स्तुति करो मानो ) ऐसा कहा। [पाठा०-गन्धर्वराज कन्याओंके वीणा-स्वरूप वचनको अनुवाद करने ( पुनः कहने ) वाले पिकको मानकर उसे भी तोतेके
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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