________________ 820 नैषधमहाकाव्यम् / तादृशी तनुर्येषां तेषां भावः धुतरजस्तनुता, मुखम् आदिर्येषां तादृशानि, तानि प्रसिद्धानि, लक्ष्माणि भूमिस्पर्श स्वेद-निमेषराहित्यादीनि देवत्वव्यञ्जकचिह्नानि, हन्त खेदे, किं कथं, न वहन्ति ? तथा हि मम दुर्भाग्यादेते देवाः स्वीयासाधारणचिह्नानि सङ्गोप्यात्र तिष्ठन्ति, तत एव नलं लक्षयितुं न शक्नोमीति भावः // 46 // ___ इन मेरी बुद्धि के वञ्चक पांचोंमें स्थित प्राणेश्वर नलमें मनुष्यका ( अथवा-मेरी चिह्न...... मनुष्यका यह चिह्न ) अर्थात् पसीना आना, भूमिस्पर्श करना, निमेष (पलक ) गिरना और पुष्पमालाका म्लान होना आदि किस प्रकार प्रकाशित होवे ? ( इन्द्र आदिके कपटसे मनुष्यका पसीना आना आदि चिह्न ग्रहण करने के कारण नलके उक्त मनुष्यगत चिह्नका पृथक् मालूम नहीं पड़ना उचित है ) / खेद है कि ये बर्हिमुख ( देव, पक्षा०-विमुख अर्थात् कृपाहीन ) उन ( अतिशय प्रसिद्ध ) धूलिस्पर्श नहीं करना आदि ( पसीना नहीं आना, पलक नहीं गिरना, पुष्पमालाका मलिन नहीं होना आदि ) चिह्नों को नहीं ग्रहण करते हैं। [नलगत मानव-चिह्नके स्पष्ट नहीं रहने पर भी यदि इन इन्द्रादि देवोंसे धूलि-स्पर्शका नहीं होना आदि देव चिह्न स्पष्ट दीखते तो नलको पहचानना सरल हो जाता, किन्तु कपटी इन इन्द्रादि चारो देवोंने अपने देव-चिह्नोंका भी त्याग कर दिया है, अत एव इस अवस्थामें नलका पहचानना अशक्य हो गया है ] / / 46 // याचे नलं किममरानथवा तदर्थ नित्यार्चनादपि ने दत्तफलैरलं तैः / कन्दर्पशोषणपृषत्कनिपातपीतकारुण्यनीरनिधिगह्वरघोरचित्तैः // 47 / / याचे इति / अमरान् इन्द्रादीन् , नलं याचे किम् ? दुहादित्वात् द्विकर्मकत्वम् , अथवा तदर्थं नलप्राप्तिनिमित्तं नित्यं यदर्चनं पूजनं तस्मादपि, न दत्तफलैः मम प्राथितमप्रयच्छद्भिः, किञ्च कन्दर्पस्य शोषणः तदाख्यः, यः पृषत्कः बाणः, तस्य निपातेन पीतः शुष्कतां प्रापितः, कारुण्यनीरनिधिः कृपाब्धिः यस्मात् तथाभूतम् , अत एव गह्वरेण दम्भेन, शाठय नेत्यर्थः, मूढेयं देवानस्मान् परित्यज्य मयै नले एवानुरागिणी अत एव एनां प्रतारयान इति बुद्ध्या कपटताश्रयणेनेति भावः, 'गह्वरं बिलदम्भयोः' इति शाश्वतः, घोरं भीमं कठिनं वा, चित्तं येषां तैः कन्दाधीनतया निष्कृपचित्तेरित्यर्थः, तैः अमरैः, अलं निष्प्रयोजनम् ; ये देवाः; काममुग्धत्वात् नित्यार्चनेनापि प्रार्थितं न प्रायच्छन् तेऽधुना प्रार्थनामात्रेणैव नैव प्रार्थितं पूरयिप्यन्तीति तत्प्रार्थना वृथैवेति भावः // 47 / / मैं देवोंसे नलको माँगू ? अथवा कामदेवके शोषण बाणके गिरने से पीये गये ( सूखे हुए ) कृपासमुद्रवाले अत एव गम्भीर गह्वर (बिल ) रूप भयङ्कर चित्तवाले ( तथा इसी कारण ) नित्य पूजनसे मेरे लिए निष्फल ( पाठा०-फल (नल ) की नहीं देनेवाले ( उन देवोंसे ( नलके लिये प्रार्थना करना ) व्यर्थ है। [कामवशीभूत वे इन्द्रादि देव नलको 1. 'ममाफलिनैरलम्-' इति पाठान्तरम् /