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________________ त्रयोदशः सर्गः। 821 पाने के लिए सर्वदा पूजन करने पर भी इस समय कृपाशून्य होकर मुझे चाहते हुए कपटसे नलरूप धारणकर यहाँ उपस्थित हैं अर्थात् जो नित्य पूजन करने पर भी नलको नहीं दिये, वे प्रार्थनामात्रसे नलको दे देंगे यह दुराशामात्र है; अतः उनसे नलके लिए प्रार्थना करना व्यर्थ है ] // 47 // ईशा ! दिशां नलभुवं प्रतिपद्य लेखा ! वर्णश्रियं गुणवतामपि वः कथं वा / मूर्खान्धकूपपतनादिव पुस्तकानामस्तं गतं बत परोपकृतिव्रतित्वम् ? // 48 // ईशा इति / हे दिशामीशाः ! लेखाः! हे सुराः ! नलात् नैषधात् भवति इति नलभूस्तां नलभुवं नलनिष्ठां, वर्णश्रियं गौरत्वरूपसम्पदम्, अन्यत्र-नलाख्यतृणनिर्मितलेखनीभुवमक्षरसम्पदं, प्रतिपद्य प्राप्यापि, 'वर्णो द्विजादौ शुक्लादौ स्तुती वर्णन्तु चाक्षरे' इत्यमरः, गुणवतां शुद्धत्वसौन्दर्यादिगुणाढ्यानाम्, अन्यत्र-बन्धनसूत्रवतां, वो युष्माकं, मूर्खा मूढाः, ते एवान्धयन्तीत्यन्धाः कूपाः अन्धकूपाः जलशून्यपुराणकूपाः, तेषु पतनात् पुस्तकानामिव परोपकृतिव्रतित्वं परोपकारनियमवत्वं कथं वा कुतो वा, अस्तं नाशं, गतम् ? बतेति देवतोपालम्भः; नलस्य रूपधारणेन तदीयगुणा अपि युष्मासु सङ्क्रान्ताः, ततश्च तदीयपरोपकारव्रतमपि युष्मासु ध्रवं सक्रान्तं, किन्तु मद्विषये तद् व्रतं कथं विनष्टम् ? इति भावः। अन्यत्र-उत्कृष्ट लिप्यक्षरशालिनां वर्णाशुद्धिरहितानामपि पुस्तकानां मूर्खहस्तपतनेन शिशिर्वंगामुपकाराभावात् परोपकारित्वं न भवति, इति भावः // 48 // हे दिक्पाल देव ! नलकी-स्थानीय रूपशोभाको पाकर ( सौन्दर्यादि) गुणयुक्त भी आपलोगोंका-कलम बनानेका नल (नरसलनामक तृणविशेष ) से उत्पन्न अक्षर शोभा (लिपि) को पाकर गुणयुक्त (शुद्धतादि गुणसे सम्पन्न, अथवा-धागेसे युक्त ) भी पुस्तकों का मूर्खरूपी अन्धकारयुक्त ( अत्यन्त गहरे ) कूपमें गिरने ( मूर्खके हाथमें पड़ने ) के - समान-परोपकार व्रतका भाव ( पक्षा०-पढ़ने तथा सुननेवालोंके उपकाररूप नियमका भाव ) क्यों नष्ट हो गया ? [जिस प्रकार 'नरसल' नामक तृगविशेषकी कलमसे लिखी गयी गुणयुक्त पुस्तकोंको उपकारिता अन्धकारमयकूप तुल्य मूखों के हाथ में पड़नेसे नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार नल-स्थानीय रूपसौन्दर्यको पाकर गुणयुक्त आपलोगोंका परोपकार करने का नियम क्यों नष्ट हो गया ? अर्थात् स्वयमेव उपकार नहीं करने पर भी अपना अभीष्ट मुझमें दूतकार्य करनेवाले नलका रूप धारणकर उस नलके सौन्दर्यादि गुण जो आपलोगोंमें आनेसे उस नलका परोपकार गुण भी आपलोगोंमें आगया, वह परोपकारगुण मेरे विषय में क्यों नष्ट हो गया ? / मूर्खताके कारण पायी गयी पुस्तकों के द्वारा उपकार करने में असमर्थ होना तथा उन पुस्तकों को देकर दूसरों का उपकार नहीं करना मूलॊका स्वभाव होता है / मूोंके हाथमें पुस्तकों का पड़ना कुएं में गिरनेके समान ही है और उनसे किसीका उपकार नहीं होना उचित ही है ] // 48 / /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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