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________________ अष्टादशः सर्गः। 1203 रक्त वर्ण होनेसे ) नखरूपी किंशुकों ( पलाश-पुष्पों ) से मानो पूजन किया अर्थात् उक्तरूप दमयन्तीके स्तनोंपर नखक्षत किया / / 96 / / अम्बुधेः कियदनुत्थितं विधुं स्वानुबिम्बमिलितं व्यडम्बयत् / चुम्बदम्बुजमुखीमुखं तदा नैषधस्य वदनेन्दुमण्डलम् / / 67 // अम्बुधेरिति / तदा संसर्गकाले, अम्बुजमुख्याः कमलवदनायाः प्रेयस्याः, मुखं वदनम्, चुम्बत् अधरं स्वदमानम्, नैषधस्य नलस्य, वदनेन्दुमण्डलं मुखचन्द्रबि. म्बम् / कत्त / अम्बुधेः सागरात् , कियत् किञ्चित्, अनुस्थितम् अनुदितम्, अधि. कांशमुदितम् ईषत् समुद्रगर्भ अवस्थितमित्यर्थः। स्वानुबिम्बेन स्वस्य विधोरेव जलान्तर्वर्तिप्रतिबिम्बेन, मिलितं युक्तम्, विधुम् इन्दुम्, व्यडम्बयत् अनुचकार / तयोः मुखयोमिथः संश्लेषात् कास्न्येनादृश्यमानत्वादिदमुपमितम् // 97 // उस समय ( सुरतकालमें ) कमलमुखी ( दमयन्ती ) के मुखका चुम्बन करते हुए, नलके मुखरूपी चन्द्रमण्डलने समुद्रसे कुछ नहीं निकले हुए अर्थात अधिकांश उदित और स्वल्पांश अनुदित हुए, (समुद्रजलमें) अपने प्रतिबिम्बसे मिलित चन्द्रमाका अनुकरण किया। ( अथवा-..."नलके मुखरूपी चन्द्रमण्डलका चुम्बन करता हुआ कमलमुखी (दमयन्ती) के मुखने...... ) / [थोड़ा अवशिष्ट और अधिकांश उदित हुआ चन्द्रका प्रतिबिम्ब समुद्रजलमें पड़ते हुए अपने प्रतिबिम्बसे युक्त होकर जैसा शोभा पाता है, वैसे ही नलदमयन्तीके मुख भी चुम्बनकार्य में शोभते थे / बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव कहनेसे नल-दमयन्ती के मुखोंकी अधिकतम साम्यता सूचित होती है तथा कामके मित्र चन्द्रमाके उदयका वर्णन करनेसे भविष्यमें कामकी अधिक वृद्धि होना भी सूचित होता है ] // 97 / / पूगभोगबहुताकषायितैर्वासितैरुदयभास्करेण तो। . चक्रतुर्निधुवनेऽधरामृतस्तत्र साधु मधुपानविभ्रमम् / / 98 / / पूगेति / तौ भैमीनलौ, तत्र तस्मिन् , निधुवने रते / 'व्यवायो ग्राम्यधर्मो मैथुन निधुवनं रतम्' इत्यमरः / पूगभोगः क्रमुकभक्षणं, ताम्बूलचर्वणमिति यावत् / 'पूगः क्रमुकवृन्दयोः' इत्यमरः / तस्य बहुतया बाहुल्येन, 'पूगभाग' इति पाठे-चर्यमा. णताम्बुले गुवाकभागस्य आधिक्यतया इत्यर्थः / कषायितैः सञ्जातकषायरसैः, तथा उदयभास्करेण कर्पूरविशेषेण, वासितैः सुरभितैः, अधरामृतैः परस्परमधरसुधापान रित्यर्थः / साधु सम्यक, मधुपानस्य मद्यपानस्य, विभ्रममिव विभ्रमं लीलाम्, चक्रतुः आचेरतुः / गुवाकादिमदकारकद्रव्यसन्धानजमद्यपानेन यथा मत्तता जायते, तथा तादृशाधरमधुपानेनापि मत्तौ तौ सुरतं चक्रतुरिति निष्कर्षः। अत्र सादृश्याक्षेपात् निदर्शनालङ्कारः // 98 // उन दोनों ( दमयन्ती तथा नल) ने (पान-बीड़ेमें डाली गयी) सुपारीके अधिक 1. 'पूगमाग-' इति, 'पूगराग' इति च पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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