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________________ त्रयोदशः सर्गः / 803 यमपक्षमें-हे चण्डि ( कोपनशीला दमयन्ति ) ! इस ( यम ) का जो मारण कार्यमें व्यसन तथा दिशा ( के निमित्त ) से दक्षिणत्व आश्रित है अर्थात् दक्षिण दिशा का आश्रय ( स्वामी होनेसे दक्षिण दिशामें निवास ) करता है; वह सब तुम मालूम कर स्वाभाविक स्नेहातिशयसे इस धर्मराज अर्थात् यममें आत्मसमर्पण करने के लिए योग्य हो अर्थात् यह सबको मारता है तथा स्वामी होनेसे दक्षिण दिशामें रहता है, यह सब जानकर तुम इसे स्वाभाविक प्रेमातिशयसे आत्मसमर्पणकर पति बनाबो। ( अथवा-हे चण्डि ! 'नल' भिन्न व्यक्ति का नाम मात्र सुननेसे कोप करनेवाली दमयन्ति ) ! इस ( यम ) के मारण कार्य का व्यसन ( सर्वदा मारनेका ही कार्य) तथा दिशा के द्वारा आश्रित दक्षिणता ( सरलता या अनुकूलता, किन्तु स्वयं दक्षिणताशून्य)-यह सब ( इसका ) तत्त्व ( वास्तविक रूप ) जान कर वह ( कर्तव्याकर्तव्यज्ञान सम्पन्न होनेसे सुप्रसिद्ध ) तुम अनल अर्थात् नलभिन्न यममें स्वाभाविक प्रेमातिशयसे आत्मसमर्पण करने के लिए योग्य नहीं हो अर्थात् इसे तुम पतिरूपमें स्वीकृतकर आत्मसमर्पण मत करो। अथवा-इसका मारण कार्यमें व्यसन (नित्य संलग्न रहना ) तो तत्त्व अर्थात् सत्थ है, परन्तु दक्षिणता ( सरलता या अनुकूलता ) तो दिङमात्रसे आश्रित है अर्थात् दक्षिण दिशाका स्वामी होनेसे उसको दक्षिणत्वाश्रित कहते हैं स्वयं दक्षिण होने के कारण नहीं, यह सब जानकर".... / अथवा-उक्त यमको जानकर अस्वाभाविक प्रेमातिशयके कारण इस यमको आत्मसमर्पण करने के लिए तुम योग्य नहीं हो, ( ऐसे असद्गुणयुक्त व्यक्ति में अस्वाभाविक प्रेम होनेसे आत्मसमर्पण करना तुम्हें उचित नहीं है, क्योंकि जहां हार्दिक प्रेम नहीं वहां आत्मसमर्पण-जैसा महत्त्वपूर्ण कार्य करना कदापि उचित नहीं कहा जा सकता, अत एव तुम इसे कदापि वरण मत करो ) // 29 / / किं ते तथा मतिरमुष्य यथाऽऽशयः स्यात्त्वत्पाणिपीडनविनिर्मित येऽनपाशः।। कान्मानवानवति नो भुवनं चरिष्णु सावमुत्र न रता भवतीति युक्तम् ? नलस्य, आशयोऽभिप्रायः, यथा अपाशः अपगताशो न भवतीत्यनपाशः साभिलाषः, ते तव, मतिरपि तथा अनपाशा, स्यात् किम् ? साभिलाषा चेत् तत् युक्त. मित्यर्थः / असौ नलः, भुवनं लोकम् , अत्यन्तसंयोगे द्वितीया, चरिष्णुः सन् कान् मानवान् मनुष्यान् , नो अवति ? न रक्षति ? अपि तु सर्वानेव रक्षति इत्यर्थः, भवता त्वम् , अमुत्र अमुष्मिन् नले, रता अनुरक्ता, न इति न युक्तम् , ईदृशे पुरुषे सर्वदा त्वया अभिरन्तव्यमिति भावः। अन्यत्र-अमुष्य वरुणस्य सम्बन्धी शयः पाणिः, त्वत्पाणिपीडनविनिर्मितये नास्ति पाशो यत्रेति नपाशः पाशास्त्रशून्यः, यथा स्यात् तथा ते मतिः किम् ? पाशास्त्रं त्यक्त्वा त्वत्पाणिग्रहणं किं तेऽभिमतम् ? इत्यर्थः। मानवान् समुन्नतचित्तः, 'मानश्चित्तसमुन्नतिः' इत्यमरः, असौ वरुणः, भुवनं 1. चरिष्णन्नासावमुत्र' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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