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________________ सप्तदशः सर्गः। अनुरागयुक्त [ वासुकी आदि ) नागों तथा हमारे अर्थात् इन्द्रादि चारों देवोंके देखते रहनेपर ( अथवा-नागों तथा हम देवों के अनुरागके साथ देखते रहने पर सबका अनादर करके ) उस दमयन्तीने श्रेष्ठ वर राजा नल ( पाठा०-नर-मनुष्य, 'र-जु' के अभेद होनेसे 'नल' ) को वर लिया है। [ उस स्वयंवरोत्सव में वासुकि आदि नाग तथा हम लोगइन्द्रादि देव-भो सम्मिलित होकर उसे वरने के लिए अनुरागसे देखते ही रह गये, किन्तु सबका त्यागकर उसने श्रेष्ठ राजा नल को अच्छी तरह वरण कर लिया, जब वासुकि आदि देवों तथा इन्द्रादि-हम लोगोंको-ही उसने वरण नहीं किया तो मर्त्यलोकवासी अन्य राजाओं के विषय में कहना ही क्या है ? इसीसे हमने पहले ( 17.117 ) कहा कि त्रिलोकीके युवकों के अहङ्कारको मर्दन करनेवाला स्वयंवर हो चुका ] // 118 // भुजगेशानसद्वेशान् वानरानितरान् नरान् / अमरान पामरान भैमी नलं वेद गुणोज्वलम् / / 116 // .. भुजगेति / भैमी दमयन्ती, भुजगेशान् वासुकिप्रमुखमहानागान् , असद्देशान् अपकृष्टपरिच्छदान् , वैरूप्यादमनोज्ञाकृतीन् इत्यर्थः / इतरान् नलात् अन्यान् , नरान् मानवान् , नरेन्द्रान् इति यावत् / वानरान् मटान् , चापल्यनिगुंगत्वाभ्यां मर्कटतुल्यान् इत्यर्थः / तथा अमरान् इन्द्रादीन् देवान् , पामरान नीचान / 'विवर्ग: पामरो नीचः' इत्यमरः। वेद वेत्ति / 'विदो लटो वा' इति णलादेशः। नलं केवलं नलनृपतिम् एव, गुणोज्ज्वलं गुणाढ्यम् , वेद इति पूर्वक्रियया अन्वयः॥ 119 // __ दमयन्ती (वासुकि आदि ) नागोंको असुन्दर 'वेश ( कञ्चुरू) वाला, (नलेर) मनुष्यों को ( चञ्चलतायुक्त, एवं सद्गुणहीन होनेसे ) वानर ( के तुल्य ), देवोंको नीच और नलको गुणोंसे उज्ज्वल समझती है ( अथवा समझा था ) // 119 // इति श्रुत्वा स रोषान्धः परमश्वरमं युगम् / जगन्नाशनिशारुद्र-मुद्रस्तानुक्तवानदः / / 120 // ___ इतीति / इति इदं, श्रस्वा आकर्ण्य, परमः उत्कट इत्यर्थः / रोग क्रोधेन, अन्धः दृष्टिशक्तिहीनः, हिताहितविवेचनापरिशून्य इत्यर्थः / अज्ञानपरवशः इति यावत् / चरमम् अन्त्यम्, युगं चतुर्थ युगमित्यर्थः / सः कलिः, जगन्नाशनिशा त्रिभुवनध्वंसकारिणी रात्रिः, कालरात्रिरित्यर्थः / तत्र रुद्रः प्रलयकाले संहारमूर्तिः शिवः, तस्य मुद्रा इव मुद्रा चिह्नम्, आकारः इति यावत् यस्य सः तादृशः सन् , तान् इन्द्रादीन्, अदः वक्ष्यमाणं वाक्यम्, उक्तवान् कथितवान् // 120 // - यह (17 / 115-119) सुनकर क्रोधान्ध ( अत एव सदसद्विचारहीन ), उत्कट अर्थात भयङ्कर वह अन्तिम युग अर्थात् कलि संसारनाशिनी रात्रि (कालरात्रि) में रुद्रके समान .(भयङ्कर) प्रकृतिवाला होता हुआ उन (हन्द्रादि देवों) से ऐसा (17 / 121-131) बोला // 11 // कयाऽपि क्रीडतु ब्रह्मा दिव्याः स्त्रीर्दीव्यत स्वयम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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