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________________ 2066 नैषधमहाकाव्यम् / ब्रह्माकी मर्यादा तोड़ना कौन बड़ी बात है ? (किन्तु ऐसा करनेपर) ब्रह्मा तुझे अवकीणों (स्त्री-सम्मोग करनेसे नष्ट ब्रह्मचर्य व्रतवाला) सुनकर द्रोह करनेवाला जाने ( और ऐसा जानकर जैसा उचित हो वैसा करें अर्थात् तुम्हें दण्डित करें ) / अथवा-ब्रह्मा तुमको अवकीणी सुनकर तुम्हें द्रोही ( वैर करनेवाला) जाने और जब तुम्हारे ( नीच ) भृत्य ( काम क्रोधादि ) भी ब्रह्माकी मर्यादाको तोड़ते हैं तो तुम नहीं तोड़ोगे क्या ? अर्थात् तुम्हें ब्रह्माकी मर्यादाको तोड़ना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। अथवा-तुम्हारे (नीच कामक्रोधादि ) भृत्योंको भी ब्रह्माकी मर्यादाको नहीं तोड़ना चाहिये, फिर तुम्हें नहीं तोड़ना चाहिये ( यह क्या कहना है अर्थात् जब तुम्हारे नीच भृत्योंको ही ब्रह्माकी मर्यादा नहीं तोड़नी चाहिये तो -समझेंगे पवं दण्डित करेंगे, इस कारण भी तुमको दमयन्तीके विवाहकी बात फिर कभी भी नहीं करनी चाहिये ) // 116 // अतिवृत्तः स वृत्तान्तस्त्रैलोक्ययुवगर्वनुत् / आगच्छतामपादानं न स्वयंवर एव नः / / 117 / / अतीति / भवतु तावत् , त्रैलोक्ये त्रिलोकमध्ये, ये युवानः यावन्तस्तरुणाः, तेषां गर्वनुत् सौन्दर्याहङ्कारहन्ता, भैमीकर्तृकप्रत्याख्यानादिति भाषः। सः वृत्तान्तः स्वयंवरप्रसङ्गः, अतिवृत्तः अतीतः। कथं त्वया ज्ञातम् ? इत्याह-आगच्छताम् आयातानां, नः अस्माकं, सः प्रसिद्धः, स्वयंवरः एव स्वयंवरस्थानमेव, अपादानम् आगमनक्रियाया अवधिसूतः, ततः एव आगच्छामः इत्यर्थः॥ 117 // त्रिलोकीके ( एक नल को छोड़कर शेष समस्त ) युवकों के अहङ्कारको मदित करनेवाला वह ( दनयन्तीका स्वयंवरोत्सव ) समाप्त हो गया, (क्योंकि ) वह स्वयंवर ही ( वापस ) आते हुए हमलोगोंका अपादान (पृथक होने में निश्चल अवधि ) है। [हमलोग उसी स्वयंवरसे आ रहे हैं, अतएव वहांका वृत्तान्त हमें ठीक-ठीक ज्ञात है कि वह स्वयंवर समाप्त हो गया, इस कारण भी तुम्हें वहां जानेकी बात करना व्यर्थ है ] // 117 // नागेषु सानुरागेषु पश्यत्सु दिविषत्सु च / भूमिपालं नलं भैमी वरं साऽववरत् वरम् / / 118 / / नागेष्विति / सानुरागेषु, अनुरागयुक्तेषु, नागेषु, नागकुमारेषु, दिविषत्सु देवेषु च, पश्यत्सु अवलोकयत्सु, पश्यतः तान् सर्वाननादृत्येत्यर्थः। 'षष्ठी चानादरे' इति चकारात् अनादरे सप्तमी। सा भैमी दमयन्ती, वरं नागाद्यपेक्षया श्रेष्ठम् , भूमिपालं चक्रवत्तिनम, नलं निषेधशम्, वरं वोढारम्, अववरत् वृणोतिस्म / वरयतेश्चौरादिः कात् ईप्सायाम् अदन्तालङ, अग्लोपत्वेनासन्वद्भावादित्वदीर्घयोरभावः // 118 // 1. 'ध्रुवमपायेऽपादानम्' (पा. सू. 24) इति पाणिन्युक्तेरिति भावः। 2. 'नरं' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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