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________________ 1890 नैषधमहाकाव्यम् / कलिस्तु चरतु ब्रह्म प्रैतु चातिप्रियाय वः / / 121 / / यदुक्तं 'पुनर्वक्ष्यसि' इत्यादिना श्लोकद्वयेन (17 / 115-116) तत्रोत्तरं सोल्लुण्ठ माह-कयाऽपीत्यादिना श्लोकद्वयन / हे देवाः ! ब्रह्मा स्रष्टा, कयाऽपि अगम्ययाऽपीति भावः। 'प्रजापति स्वां दुहितरमभ्यगात्' इति श्रुतेः, क्रीडतु रमताम् , स्वयं यूयञ्च इत्यर्थः। दिव्याः स्वर्गीयाः, स्त्रीः नारी:, दिव्याभिः वेश्याभिरिति भावः / 'कर्मच' इति करणस्य कर्मस्वम्। दीव्यत क्रीडत, कलिस्तु अहं पुनरित्यर्थः, वः युस्माकम् , अतिप्रियाय अत्यन्तप्रीतिजननाय, ब्रह्म चरतु ब्रह्मचर्यमवलम्ब्य तिष्ठतु, प्रेतु म्रियताञ्च // 121 // (पहले कलि इन्द्रोक्त 'पुनर्वक्ष्यसि.' इत्यादि (17 / 115-116) श्लोकोंका उत्तर दे रहा है-) ब्रह्मा किसी स्त्री ( अतिसुन्दरी गायत्री' आदि, अथवा-सम्भोगके अयोग्या हे.नेसे अग्राह्य नामवाली, अथवा-पुत्री सरस्वती) के साथ क्रीडा करें, (तुमलोग भी) दिव्य स्त्रियों ( अतिशय सुन्दरियों, अथवा-स्वर्गीय रम्भा आदि अप्सराओं, अथवाअतिसुन्दरी 'अहल्या' आदि परस्त्रियों ) के साथ स्वयं ( स्वच्छन्दतापूर्वक ) क्रीडा करो, किन्तु कलि तुमलोगोंके अतिशय प्रिय करने के लिए ब्रह्मचर्य धारण करे और ( अन्तमें ) मर जाय / [पाठा-कलि तो ब्रह्मचर्य धारण करे, या तुमलोगों के अतिप्रियता (प्रसन्नता ) के लिए मर जाय / अथवा-ब्रह्मा तथा तुम लोग तो यथेष्ट स्वच्छन्दतापूर्वक सुन्दरियों के साथ भोग-विलासकर आनन्द मनाओ और मैं कलि तुम लोगोंकी प्रसन्नता ( मर्यादा रक्षा ) के लिए. यावज्जीवन ब्रह्मचारी रहूं और अन्तमें मर जाऊं। अथवा-ब्रह्मा तथा तुम लोग स्वच्छन्दतापूर्वक सुन्दरियों के साथ आनन्द मनाओ, मैं कलि तुम लोगोंकी अतिशय प्रिय ( दमयन्ती ) के लिए मर जाऊंगा किन्तु स्वेच्छाचरण नहीं करूंगा इत्यादि प्रकारसे कलिने इन्द्रादिका उपहास किया ] // 121 / / / चर्येव कतमेयं वः परस्मै धर्मदेशिनाम् ? / / स्वयं तत् कुर्वतां सर्व श्रोतुं यद् बिभितः श्रुती / / 122 / / ततः किम् ? तत्राह चर्येवेति / परस्मै अन्यस्मै, धर्मदेशिनां स्वसुतादिगमनं न कार्यमित्यादिरूपमाचारमुपदिशताम् , स्वयं तु आत्मना पुनः, यत् कर्म, ब्रह्महत्या. गुरुदारगमनादिरूपमित्यर्थः। श्रुती कौँ अपि, श्रोतुम् आकर्णयितुम् , बिभितः त्रस्यतः / 'भियोऽन्यतरस्याम्' इति विकल्पादिकारः। तत् सर्वं ब्रह्महत्यापारदार्यादिकम् , कुर्वताम् आचरताम् , 'अहल्यायै जार' इति श्रुतेः। वायुष्माकम् , इयम् एषा, चर्या आचारः, रीतिरिति यावत् , कतमेव ? कीदृशीव ? अवाच्या इत्यर्थः / स्वयमनाचारिणां युष्माकं परोपदेशवचनं न ग्राह्यम् इति भावः // 122 // 1. 'वाति-' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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