________________ सप्तदशः सर्गः। दूसरेके लिए धर्मोपदेश करनेवाले तथा जिस कर्म ( पुत्र्यादिसम्भोग ) को सुनने के लिए कान भी डरते हैं, उन सब कर्मोको स्वयं करते हुए तुमलोगोंका आचरण ही क्या है ? [ तुमलोग केवल धर्माचरण करने के लिए दूसरोंको उपदेश देते हो, किन्तु स्वयं ऐसे निन्दि. ततम कर्म करते हो, जिन्हें सुननेसे कान भी डर जाते हैं, अतः तुमलोगोंका उपदेश ग्रहण करने योग्य नहीं है ] // 122 // तत्र स्वयंवरेऽलम्भि भुवः श्रानैषधेन सा। जगता ह्रीश्च युष्माभिाभस्तुल्याभ एव वः // 123 / / यदुक्तम् 'अतिवृत्तः स वृत्तान्तः' इत्यादिना श्लोकत्रयेण (17 / 117-119) तत्रोत्तरं प्रपञ्चेनाह-तत्रेत्यादिभिः षोडशभिः / हे देवाः ! तत्र स्वयंवरे दमयन्तीकत्त केप्सितपतिवरणे, भुवः श्रीः भूलोकलक्ष्मीः, सा भैमी, नैषधेन नलेन, अलम्भि लब्धा / लभेय॑न्तात् कर्मणि लुङि 'विभाषा चिण्णमुलोः' इति विकल्पान्नुमागमः / युष्माभिश्च भवद्भिस्तु, जगतः त्रिलोकस्य, हीः लज्जा, त्रैलोक्ये यावती लज्जा वर्तते सा इत्यर्थः / अलम्भि इति पूर्वेणान्वयः / स्वर्लोकलज्जाकरमिदमवमानमिति भावः / एवञ्च वः युष्माकं, नलस्य देवानाञ्च इत्यर्थः / स च यूयन्चेति तेषां युष्माकमिति तदायेकशेषः / लाभः फलप्राप्तिः, तुल्याभः समानरूप एव, एकविधः एव इत्यर्थः / श्री-हीति शकार-हकारयोः विभिन्नतामात्रमन्यत् तुल्यमिति भावः // 123 // (अब कलि इन्द्रोक्त 'अतिवृत्तः सः वृत्तान्तः' इत्यादि तीन (171117-119 ) इलोकों. का उत्तर 'तत्र स्वयंवरे' आदि नव ( 17 / 123 / 131) श्लोकोंसे देना है-) उस स्वयंवर में नलने संसारकी लक्ष्मी ( दमयन्ती) को और तुमलोगोंने संसारकी ( अथवा-संसारसे) लज्जाको प्राप्त किया, ( इस प्रकार ) तुमलोगों ( तुम इन्द्रादि देवों तथा नल ) का लाभ समान ही है / [ नलने संसारकी लक्ष्लीरूपा दमयन्तीको पाया और तुमलोग उसे नही पानेके कारण संसारके लोगोंसे लज्जा प्राप्त किये अर्थात् संसार में लज्जित हुए, इस प्रकार 'श्री' तथा 'ही' दोनों में केवल 'शकार-हकार' का भेद है, शेष लाभ दोनों पक्षोंका समान ही है, अर्थात् स्वयंवर में जाकर भी तुमलोगोंके सामने ही नलने दमयन्तीको प्राप्त कर लिया तथा तुमलोग उसे नहीं पानेसे अत्यन्त लज्जित हुए, अतएव तुमलोगोंका दर्प व्यर्थ है ] // 123 // दुरान्नः प्रेक्ष्य यौष्माकी युक्तेयं वक्त्रवत्रणा। लजयैवासमर्थानां मुखमास्माकमोक्षितुम् / / 124 // 1. 'नवमिः' इत्येवोचितम् , षोडशश्लोकानांमध्ये श्लोकत्रयेण (17 / 132-134) सरस्वतीभाषणवर्णनात् / 2. 'युष्माकम्' इति पाठः साधुः' इति 'प्रकाश'कारः'। 3. 'लज्जयेवा-' इति पाठान्तरम् / 66 नै० उ०