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________________ नैषधमहाकाव्यम् / स्कन्ध, 'प्रवह' वायुमें मेषादि राशि-समूह और उस मेषादि राशि-समूहमें चन्द्रमाका रहना पुराणों में देखना चाहिये ] // 75 // अस्मिञ्छिशौ न स्थित एव रङ्कयूनि प्रियाभिर्विहितोपदाऽयम् / आरण्यसन्देश इवौषधीभिरते स शङ्के विधुना न्यधायि || 76 // अस्मिन्निति / शिशौ बाले एककलात्मकेऽस्मिश्चन्द्रे रङ्कर्मगो न स्थितो नासी देव तस्यां दशायामदर्शनात् / किंतु प्रियाभिरोषधीमियूंनि तरुणे पूर्णावयवेऽस्मिश्चन्द्रऽयं रङ्कुरुपदेव विहिता प्रेषिता / कीदृशी ? अरण्ये भवः संदिश्यते प्रस्थाप्यते संदेशस्तद्पा / अरण्यभवानां संदेशरूपा वा / 'वयं भवस्प्रिया निर्जने वने मृगः सह वसामः, स्वं तु स्वर्गे विजयी सुखेन वर्तसे' इति गूढार्थोप(पा)लम्भसूचिकेति यावत्। अनन्तरं विधुना प्रेयसीसंदेशरूपः स रङ्करके मध्ये, अथ च-उत्सङ्गे, प्रियाप्रेम. भरेण न्यधायि स्थापित इत्यहं शङ्के / अन्यापि प्रिया तरुणं प्रियं प्रति कंचित्संदेश मुपदारूपेण प्रेषयति, स च तं हृदयादौ धारयति / ओषध्यो हि वनवासिन्यस्तदनुरूपमेव संदेशं मृगं स्वप्रिये चन्द्रे प्रेषितवत्यः / आरण्यसंदेश इवायमुपदा प्रहितेति वा। 'यदा-' इति पाठे-यदाप्रभृति प्रेषितः, तदाप्रभृति तारुण्यदशायां चन्द्रेणा. यमङ्के न्यधायि, न तु पूर्वमित्यर्थः / भारण्यः, भवार्थेऽण // 76 // बाल ( एक कलात्मक ) इस चन्द्रमामें मग (कलङ्कहरिण) था ही नहीं, (किन्तु) इसके युवक (पूर्णावयव ) होनेपर ( इस चन्द्रमाकी) प्रिया ओषधियों ने वनके सन्देशके समान इस मृगको उपहार (भेंट) बनाकर भेजा ( 'तुम स्वर्गका आनन्द लूट रहे हो और तुम्हारी प्रिया हम औषधियां तुम्हारे विरहसे वनमें मृगोंके साथ वसती हुई कष्ट सहन कर रही हैं। इस प्रकारके सन्देशरूपमें वनमें सुलम इस मृगको युवक (पूर्ण) चन्द्रमाके पास ओषधियोंने भेजा ) और उस प्रियाप्रेषित उपदाभूत मृग को चन्द्रमाने अपने बीच (पक्षा०क्रोड ) में रख लिया ऐसा मैं जानती हूँ / [ वनवासिनी चन्द्रप्रियाभूता ओषधियोंका वहांके अनुरूप मृगको सन्देशरूपमें उपहार भेजना तथा प्रियाओंके भेजे हुए उपहारको अपने क्रोड़ में चन्द्रमा का रखना उचित ही है ] // 76 // अस्यैव सेवार्थमुपागतानामास्वादयन् पल्लवमोषधोनाम् / धयन्नमुष्यैव सुधाजलानि सुखं वसत्येष कलङ्करकः // 77 / / अस्येति / एष कलकरङ्कुर्विरहपीडितत्वादस्यैव चन्द्रस्य सेवार्थमपागतानामोषधीनां पल्लवमास्वादयन् / तथा-अमुष्यैव सुधारूपाणि जलानि धयन् पिबन् सुखमनायासलब्धावृत्तिरिव वसति, आहारलोभादत्रैव वसतीत्यर्थः। अन्योऽपि मृगो जलकिसलययुते देशे सुखेन वसति कदाचिदपि न स्यजति / पल्लवम् , जात्ये. कवचनम् // 77 // (चन्द्रमध्यस्थ ) यह कलङ्कमृग ( ओषधियोंके विरइसे पीड़ित ) इसी ( चन्द्रमा) की
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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