________________ द्वाविंशः सर्गः। 1536 बिभर्ति / परोपकारशीलायाः सर्वात्मना शुद्धाया अपि चन्द्रमण्डल्या दैवादेकमङ्गं मलिनं जातमित्यर्थः / यागे हि हिंसामानमेव मालिन्यम् / 'मुधाङ्गम्-' इति पाठे-कलकरूपमेकमङ्गं मलिनं वृथैव बिभर्ति / शुद्धाया मालिन्ययोगस्यानौचित्या. दित्यर्थः / शुद्धस्यापि श्रौतधर्मस्य सांख्येर्दोषारोपणान्मालिन्यं मुधैवेत्यर्थः / इज्या, 'वजयजोः-' इति क्यप् // 74 // देव-समूहसे भोज्य समृद्धि (कलावृद्धि, पक्षा०-हविष्यादि सम्पत्ति) वाली तथा स्वच्छ वर्ण ( पक्षा०-पवित्र ) यह चन्द्रमण्डली यशके समान (शोभती) है, तथा यह (उक्तरूपा चन्द्रमण्डली कलङ्करूप एक ( मध्यभागस्थ ) मलिनता ( कृष्णवर्ण) को उस प्रकार धारण करती है, जिस प्रकार उक्तरूपा इज्या ( याग-) पशुकी हिंसारूप मलिन ( दोषयुक्त) एक अङ्ग ( कर्म-विशेष ) को धारण करती है / [ सर्वथा परोपकारशील स्वच्छ चन्द्रमामें यशमें हिंसाके समान एक मलिन कलङ्क (दोष ) लगा हुआ है ] // 74 / / एकः पिपासः प्रवहानिलस्य च्युतो रथाद्वाहनरङ्करेषः। अस्त्यम्बरेऽनम्बुनि लेलिहास्यः पिबन्नमुष्यामृतबिन्दुवृन्दम् / / 75 / / एक इति / एष मृगाङ्के रश्यमानः प्रसिद्धः एकः पिपासुस्तृषाक्रान्तः सप्तवायुः स्कन्धमध्यवर्तिनः प्रवहाख्यस्यानिलस्य मृगवाहनस्य गगनचारिणो रथाच्च्युतो वाहकभूतो रङ्कमंगोऽनम्बुनि निर्जलेऽम्बरे लेलिहास्यो नितरां पौनःपुन्येन वास्वादन. कारि मुखं यस्य तादृशो भवनमुष्य चन्द्रस्यामृतबिन्दुवृन्दं पिबन्सन्नस्ति / तृषाक्रान्तो रथं परित्यज्य पतितो निर्जलेऽपि गगने चन्द्रामृतबिन्दुवृन्दमास्वादयन् वायुवाहनमृग एवायम्, न तु कश्चित्कलङ्कमृगो नामेत्यर्थः / अस्तीति वर्तमानप्रत्यये. नामृतास्वादनेन चन्द्र परित्यज्य गन्तुमशक्तोऽद्यापि वर्तत इति सूचितम् / एवम. न्योऽपि तृषाक्रान्तो निर्जले देशे प्रस्रवणादेः पतजलबिन्दुवृन्दं पिबमनुपशान्तपि. पासो लेलिहास्यः सन् तत्रैव चिरं तिष्ठति / सप्तवायुस्कन्धाः पुराणप्रसिद्धाः / लेलिहेति, नितरां पुन: पुनर्वा लेढीत्यर्थ यङिपचाद्यचि 'यङोऽचि च' इति यङो लुक // 75 // प्यासा हुआ ( अत एव सात वायुओं के स्कन्धके मध्यवर्ती ) 'प्रवह' नामक वायुके रथते पृथक् हुआ यह (प्रत्यक्ष दृश्यमान ) वाइन ( 'प्रवह' नामक वायुका वाहनभूत) मृग निर्जल आकाश में (प्यास से व्याकुल होने के कारण ओष्ठप्रान्तको चाटने वाला) इस चन्द्रमाके अमृत-बिन्दु-समूहको पी रहा है। [ यह चन्द्रमामें दृश्यमान कलङ्क 'प्रवह' वायुके रथसे प्यासके कारण अलग होकर जल-रहित आकाशमें प्याससे ओठको चाटनेवाला और चन्द्र. माके अमृतबिन्दुको ‘पीता हुआ 'प्रवह' वायुका वाहनभूत मृग ही है। लोकमें भी कोई प्याससे व्याकुल व्यक्ति निर्जल .स्थानमें ओठोंको चाटता तथा झरने आदिके जल-विन्दुकी पीता रहता है, वहांसे लौटता नहीं है। 'अस्ति' (है) इस वर्तमान कालिक क्रियासे बहुत दिन पूर्व उक्त रथस पृथक् हुए मृगका आजतक स्थित रहना सूचित होता है / सात वायु.