________________ 1186 नैषधमहाकाव्यम् / कहीं इसी तरह विरह न हो जाय' इस आशङ्कासे ) डरती हुई वह ( दमयन्ती) पति ( नल) की हँसीके लिए हुई अर्थात् उस प्रकार डरती हुई उसे देखकर नल हँसने लगे ( पा.डरती हुई प्रियाका आलिङ्गनकर उस ( नल ) ने नहीं छोड़ा अर्थात् उसके भयको दूर करने के लिए बहुत देर तक आलिङ्गन किये रहे-लोकमें भी डरे हुए व्यक्तिके डरको दूर होने के लिये उसका हितचिन्तक व्यक्ति उसे गोद आदिमें लेकर दबाये रहता है ) / अकारण उत्पन्न होते हुए विकारवाला चित्त किसी पदार्थके ( विषय में ) भविष्य ( होनहार ) को कह देता है। [इससे कलिकरिष्यमाण नल-दमयन्तीका भावी विरह सूचित होता है ] // 64 // 'चुम्बितं न मुखमाचकर्ष यत् पत्युरन्तरमृतं ववर्षे तत् / सा नुनोद न भुजं यदर्पितं तेन तस्य किमभून्न तर्पितम् ? / / 65 / / चम्बितमिति / सा भैमी, चुम्बितं नलेन चुम्बितुमारब्धम् , 'चुम्बितुम्' इति पाठे-चुम्बितुं नलेनाधरं पातुमुद्यते सतीत्यर्थः / मुखं निजाननम् , न आचकर्ष न अपासारयत् / इति यत् तत् चुम्ब्यमानमुखस्य अनाकर्षणमेव, पत्युः नलस्य, अन्तः अन्तःकरणे, अमृतं सुधाम , ववर्ष निषिषेच, तत्तुल्यमानन्दमजनयदित्यर्थः। तथा अर्पितं स्तनोपरि न्यस्तम् , भुजं नलकरम् यत् न नुनोद न निरास, तेन भुजानप. सारणेन, तस्य नलस्य सम्बन्धि, किं किं वस्तु, अङ्गं वा चित्तं वा इत्यर्थः। न तर्पितम् अभूत् ? न आप्यायितम् अभूत् ? अपि तु सर्वाङ्गसन्तपंणमेवाभूदित्यर्थः // 65 // (क्रमशः लज्जा तथा भयको दूरकी हुई) उस (दमयन्ती) ने चूमे जाते हुए (पाठा०नल द्वारा चूमने के लिये तत्पर ) मुखको जो नहीं हटाया, वह पति ( नल ) के अन्तःकरणमें अमृत वर्षा कर दिया अर्थात् उससे अमृन वर्षा-जैसा नलको आनन्द हुआ। और ( स्तनादिपर ) नलके द्वारा अर्पित ( बढ़ाये गये ) हाथको जो नहीं हटाया, उससे उस (नल) का क्या (मन, या शरीरादि ) नहीं तर्पित ( अतिशय सन्तुष्ट ) हुआ ? अर्थात् नलका मन (या-प्रत्यङ्ग ) अतिशय सन्तुष्ट ही हुआ // 65 // नीतयोः स्तनपिधानतां तया दातुमाप भुजयोः करं परम् / वीतबाहुनि ततो हृदंशुके.केवलेऽप्यथ स तत्कुचद्वये / / 66 / / नीतयोरिति / सः नला, तया भैम्या, स्तनपिधानतां कुचावरणताम् , नीतयोः प्रापितयोः,भुजयोः तहोर्युगयोः, परं केवलम् , प्रथममिति भावः / भादौ केवलं कुच. स्थ भुजोपरि इति निष्कर्षः / ततः अनन्तरम् ,वीतबाहुनि अपसारितभुजे, शनैः शनैः नले नेति भावः / हृदंशुके स्तनावरकवस्त्रे, अथ तदनन्तरम् केवलेऽपि अपसारितांशुः कत्वात् उन्मुक्तेऽपि इति भावः। तस्कुचद्वये दमयन्तीस्तनयुगले, करं हस्तम् , दातुम् अर्पयितुम् , आप शशाक इत्यर्थः / दमयन्त्या अपि क्रमशो मन्मथोदयेन लज्जाजन्यः 1. 'चुम्बितुम्' इति पाठान्तरम् /