________________ सप्तदशः सर्गः। 1051 होनेपर पाक्षिक कर्मका भी त्याग करना न्यायसङ्गत होनेसे देहान्तरमें पापजन्य दुःख होनेके भयसे पापको यदि त्याज्य मानते हो तो यज्ञमें पशुहिंसा करनेसे भी 'अहिंसा परमो धर्म 'न हिंस्यात् सर्वभूतानि'. इत्यादि श्रुति-स्मृतिवचनोंसे हिंसाका त्याग प्रतिपादित होनेसे उक्त यज्ञीय हिंसामें भी पाप होनेकी सम्भावना होनेसे वह यश भी तुमलोगोंको नहीं करना चाहिये और यदि ऐसा नहीं करते हो तो तुल्यन्यायसे पापका भी आचरण करो ] // .. यस्त्रिवेदीविदां वन्द्यः स व्यासोऽपि जजल्पवः। रामाया जातकामायाः प्रशस्ता हस्तधारणा / / 46 // / य इति / किञ्च, त्रयाणां वेदानां समाहारः त्रिवेदी, त्रिलोकीवत् प्रक्रिया / तद्विदा त्रयीवृद्धानां, वेदत्रयाभिज्ञानामित्यर्थः, यः वन्द्यः पूज्यः, श्रेष्ठ इत्यर्थः, सः व्यासोऽपि कृष्णद्वैपायनोऽपि, जातकामायाः रन्तुं जाताभिलाषायाः, रामायाः कामिन्याः; हस्तधारणा करग्रहणं, प्रशस्ता कर्तव्या, इति वः युष्माकं, जजल्प उक्तवान् , भारतादौ इति शेषः / 'स्मराता विह्वलां दीनां यो न कामयते स्त्रियम् / ब्रह्महा स तु विज्ञेयो व्यासो वचनमब्रवीत् // ' इति महाभारतादिवाक्यात् स्वयञ्च विचित्रवीर्यभार्याभिगमनेन पुत्रोत्पादनादिति भावः // 46 // . जो तीनों वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद ) जाननेवालोंके वन्दनीय हैं, उन व्यासने भी आपलोगोंसे 'कामुकी स्त्रीका हाथ ग्रहण करना ( पक्षा०-विवाह करना) श्रेष्ठ है' ऐसा कहा है / ( अथवा-जो तीनों वेद जाननेवाले आपलोगोंके वन्दनीय हैं, उस व्यासने भी...)। [जब वेदत्रयके ज्ञाताओं के वन्दनीय व्यासजी भी ('अपि' शब्दसे वाल्मीकि आदि भी ) कामुकी स्त्रीका ग्रहण करना श्रेष्ठ बतलाते हैं, तब 'इसे पाप समझना महान् भ्रम है ] / / 46 // सुकृते वः कथं श्रद्धा ? सुंरते च कथं न सा ? | तत् कमें पुरुषः कुय्योद् येनान्ते सुखमेधते // 47 // सुकृते इति / सुकृते तपोयज्ञादौ पुण्यकर्मणि, वः युष्मांक, कथं केन हेतुना, श्रद्धा विश्वासः ? सुरते स्त्रीसङ्गमादौ च, सा श्रद्धा, कथं न ? अस्तीति शेषः। तत्रव श्रद्धया भवितव्यम् इति भावः / कुतः ? पुरुषः नरः, तत् तादृशं,कर्म क्रियां, कुर्यात् आचरेत् , येन कर्मणा, अन्ते परिणामे, कर्मान्ते इत्यर्थः, सुखम् आनन्दम् , एधते बर्द्धते, सुखार्थमेव कर्म कुर्यात् इत्यर्थः / तच्च सुरतम् एव अनुभवसिद्धत्वात् , न सुकृतं वैपरीत्यादिति भावः // 47 // '. पुण्य ( चान्द्रायणादि व्रत ) में तुमलोगोंको कैसे. श्रद्धा (आत्म-विश्वास ) है तथा सुरत ( मैथुन-पाठा०-परदारासम्भोगरूप पाप) में वह श्रद्धा क्यों नहीं है, क्योंकि मनुष्यको वह काम करना चाहिये, जिससे अन्तमें सुख बढ़े। [ पुण्यमें प्रत्यक्षतः सुख नहीं 1. 'दुरिते' इति पाठान्तरम् / 66 नै० उ०