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________________ 1050 नैषधमहाकाव्यम्। मृत प्राणीके पापसे दुःख तथा पुण्यसे सुख होते हैं, ऐसी श्रुति ( वेद ) कहता है ( पक्षा०-यह श्रुति है अर्थात् केवल सुना ही जाता है, उसमें प्रामाणिकता कोई नहीं है ), किन्तु इसमें विपरीतभाव ( पापसे सुख तथा पुण्यसे दुःख ) देखा जाता है, इस कारण ( अथवा-इन दोनोंके ) बलाबलको तुमलोग कहो / [ प्रयागादि तीर्थमें स्नानरूप धर्म करने से पुण्य तथा शास्त्र-विरुद्ध कार्य करनेसे दुःख होता है, ऐसा वेदका कथन कथन है, किन्तु यह प्रत्यक्ष देखा जाता है कि प्रातःकाल प्रयागादि तीर्थोंमें स्नान या तप आदि करनेसे दुःख तथा मद्य-पान, परस्त्री-सम्भोग आदि करनेसे आनन्द मिलता है, पुण्यसे परलोक होनेपर स्वर्गादि प्राप्तिरूप सुख मिलता है यह परोक्षकी बात है, अत एव प्रत्यक्ष तथा परोक्ष प्रमाणमें प्रत्यक्ष प्रमाण बलवान् होनेसे यह मानना. पड़ेगा कि पापकर्नसे हो सुख तथा पुण्यकर्मसे दुःख मिलता है, अतः पापकर्ममें ही सबको प्रवृत्त होना चाहिये ] // 44 // सन्देहेऽप्यन्यदेहाप्तेविवज्यं वृजिनं यदि / त्यजत श्रोत्रियाः ! सत्रं हिंसांदूषणसंशयात्' / / 45 / / सन्देहे इति / अन्यदेहाप्तेः मृतस्य देहान्तरप्राप्तः, सन्देहेऽपि संशयेऽपि, पापकारी चेत् तदा मृत्वा देहान्तरमाश्रित्य नरकभोगी स्यादिति वादिनः, यः पापकारी स दग्ध एव, अतस्तस्य देहान्तरप्राप्त्यसम्भवेन नरकभोगस्याप्यसम्भवः, इति देहात्मवादिनः तत्प्रतिवादिनश्च तादृशविरुद्धवाक्यद्वयजन्यसन्देहे सत्यपि इत्यर्थः, यदि वृजिनं पारदाOदिपापं, 'पापं किल्विषकल्मषं कलुषं वृजिनैनोऽघम्' इत्यमरः / विवज्यं त्याज्यं, पाक्षिकदोषस्यापि परिहार्यत्वादिति भावः / तर्हि, श्रोत्रियाः ! हे छान्दसाः ! हे वेदाध्यायिनः ! इत्यर्थः / श्रोत्रियच्छान्दसौ समौ' इत्यमरः / छन्दो वेदमधीते इति छन्दसो वा श्रोत्रभावो निपात्यते 'तदधीते' इत्येतस्मिन्नर्थे घंश्च इति निपातनात् साधुः, हिंसादूषणसंशयात् जीवहत्याजनितपापशङ्कातः, वैधहिंसायामपि साङ्ख्यादिभिः प्रत्यवायाङ्गीकारादिति भावः / सत्रं यज्ञं, त्यजत जहीत, 'पाक्षिकोऽपि दोषः परिहर्त्तव्यः' इति न्यायादिति भावः / पारदार्यादेः पुनरहिंसात्मकत्वात् प्रत्युत सुखकरत्वाच्च न कश्चित् प्रत्यवायः इति तात्पर्यम् // 45 // - ( जन्मान्तरमें दुःखकी सम्भावनासे पाप नहीं करना चाहिये ऐसा कुछ लोग कहते हैं, तथा जो ( शरीर ) पाप करता है, वह तो मरने के बाद जला दिया जाता है, पुनः दूसरा शरीर मिलेगा, इसमें क्या विश्वास है ? इस प्रकारके दो मत होनेसे ) दूसरे देहकी प्राप्ति होनेमें सन्देह होनेसे ( पाक्षिक दोषका भी त्याग करना ठीक है इस न्यायसे ) यदि पापका त्याग करना चाहिये ( ऐसा तुमलोग कहते हो ) तो हे वेदपाठियो ( वशिष्ठ आदि महर्षियो) ! ( यदि हम यज्ञमें पशुओंको मारेंगे तो उससे भी सम्भवतः ) हिंसा होगी-इस सन्देहके होनेसे यज्ञको भी छोड़ दो / [ जिस प्रकार शरीरकी पुनः प्राप्ति होनेके सन्देह १.'-संश्रयात्' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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