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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1581 रात्रिको करनेवाला ) हुआ और चन्द्रमाके मृगसे (कृष्णत्व, चापल्य तथा उन्मादकस्वादि गुणोंको लेकर सारभूत अर्थात श्रेष्ठतम ) तुम्हारे नेत्रद्वयको बनाया, अन्यथा यदि यह मृग नेत्रहीन होनेसे अन्धा नहीं हो गया होता तो ( चन्द्राधिक सुन्दर ) तुम्हारे मुखके विद्यमान रहनेपर इस चन्द्रमामें ही धैर्यको कैसे धारण करता ? अर्थात् चन्द्रमाको छोड़कर चन्द्राधिक सुन्दर तुम्हारे मुखमें आकर रहने लगता [ परन्तु उसके वैसा नहीं करनेसे ज्ञात होता है कि सारभूत मृगनेत्रको तुम्हारे मुखमें रखनेके कारण यह चन्द्रमा अन्धा हो गया है। लोकमें भी कोई अन्धा व्यक्ति उत्तम स्थानको जाने में असमर्थ होनेसे हीन स्थानमें ही सन्तोषपूर्वक रहता है / तुम्हारा मुख चन्द्रमासे तथा नेत्र मृगनेत्रसे अधिक सुन्दर हैं] // 145 // शुचिरुचिमुडुगणमगणनममुमतिकलयसि कृशतनु ! न गगनतटमनु | प्रतिनिशशशितलविगलदमृतभृतरविरथहयचयखुरबिलकुलमिव / / 146 // शुचीति / हे कृशतनु ! त्वं गगनतट नभःस्थलमनु लक्षीकृत्य शुचिरुचिं श्वेतकान्ति, तथा-बहुत्वादगणनं संख्यातुमशक्यममुमडल्या निर्देश्यं प्रत्यक्षगम्य. मुहुगणं प्रतिनिशं रात्रौ रात्रौ शशितलाचन्द्राधोभागाद्विगलता स्रवताऽमृतेन भृतं पूर्ण रविरथस्य हयचयस्य खुराणां यानि बिलानि न्यासस्थानविवराणि तेषां कुलं वृन्दमिव नातिशयेन कलयसि, अपि तु तदिवातितरां जानीहीत्यर्थः। प्रतिनिशं चन्द्रावलता धवलेनामृतेन पूर्णाः सूर्याश्वखुरगर्ता इव तारकाः शोभन्त इति भावः / गगनतटम, कर्मप्रवचनीययोगाद् द्वितीया। प्रतिनिशम, वीप्सायामव्ययीभावः / सर्वलघुः // 146 // हे कृशाङ्गी ! ( तुम ) आकाशतटको लक्ष्यकर स्वच्छ कान्तिवाले अगणित तारा-समूह को प्रत्येक रात्रिमें चन्द्रमाके अधोभागसे बहते हुए अमृतसे परिपूर्ण, सूर्यरथके घोड़ों के खुरोंसे बने बिल-समूह के समान सम्यक प्रकारसे नहीं जानती हो क्या ? [दिनमें चलते हुए सूर्यरथके घोड़ों के खुरोंसे उस अमृतपूर्ण स्थानमें बिलें हो गयी हैं, जो प्रत्येक रात्रिको चन्द्रतलसे होते हुए अमृतस्रावसे पूर्ण होकर तारा-समूह ज्ञात होती हैं ] // 146 // उपनतमुडुपुष्पजातमास्ते भवतु जनः परिचारकस्तवायम् / तिलतिलकितपर्पटाभमिन्दु वितर निवेद्यमुपास्स्व पञ्चबाणम् / / 147 // उपनतमिति // हे प्रिये ! 'रक्को भौमः, शनिः कृष्णः, गुरुः पीतः, सितः कविः' इत्यादिज्योतिःशास्त्रादिप्रामाण्यानानावर्णाकृतीन्युडूनि नक्षत्राण्येव पुष्पजातमुपनतमुपसंपन्नमास्ते अयं मल्लक्षणो जनः प्रारब्धकामदेवपूजायास्तव परिचारकश्चन्दनाचुपचारोपनायकः, अथ च-संभोगकारी भवतु / स्वं तिलैः संजाततिलकः, तिले. रेव तिलकवान्कृतो वा यः पर्पटः शालितण्डुलपिष्टरचितश्चिपिटस्तिलसंकुलीसंज्ञ उपदंशविशेषस्तद्वदाभा यस्य तत्तुल्यं सकलङ्कमध्यस्वाद्विशिष्टपर्पटसहशमिन्दुमेव निवेद्यं कामाय वितर, एवं पञ्चबाणं कामदेवमुपास्स्व पूजय / अन्योऽपि देवपूजकः
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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