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________________ 866 नैषधमहाकाव्यम्। गये ) आश्चर्यकारक चित्रोंसे स्वच्छतम कान्तिवाले भवन शोमने लगे, (इस प्रकार जङ्गम नागरिक लोगों तथा स्थावर भवनों और ) मणियोंकी बनी हुई भूमिसे (अथवा-इस प्रकार मणिजटित भूमिसे उपलक्षित ) उस नगर में पृथ्वीका अपना ( सहज = प्राकृतिक ) शरीर परिवर्तित-सा ( बदले हुएके समान) हो गया। ( अथवा-उलटे हुएके समान (ब्रह्माने पृथ्वीके सहज शरीरको उलट दिया है ), अतएव मणिमयी भूमि आदिसे शोभमान नीचेका पाताल लोक ऊपर आ गया है और ऊपरका साधारण शोभावाला भाग नीचे चला गया है ऐसा ) मालूम पड़ता था। अथवा-परिवर्तित ( बदली गयी ) है उपमा जिसकी ऐस। पृथ्वीका स्वरूप हो गया है अर्थात् पहले स्वर्ग उपमा और पृथ्वी उपमेय थी, किन्तु अब पृथ्वी उपमा तथा स्वर्ग उपमेय हो गया है यानी स्वर्गसे पृथ्वी ही श्रेष्ठ शोभावाली हो गयी है ऐसा मालूम पड़ता था / ( पाठा०-स्वर्गसे परिवर्तित ( बदली गयी) उपमावालेके समान पृथ्वीका स्वरूप हो गया ) // 15 // तदा निसस्वानतमां घनं घनं ननाद तस्मिन्नितरां ततं ततम् | अवापुरुच्चैः सुषिराणि राणिताममानमानद्धमियत्तयाऽध्वनीत् / / 16 / / तदेति / तदा आसन्नविवाहमहोत्सवकाले, तस्मिन् पुरे, घनं काश्यतालादिवाद्यं, धनं निरन्तरं यथा स्यात् तथा, निसस्वानतमाम् अतिशयेन दध्वान 'किमेतिडव्ययघादामु-' इत्यादिना आमु-प्रत्ययः। ततं वीणादिकं वाद्यं, नितराम् अतिशयकम्, पूर्ववदामु-प्रत्ययः, ततं विस्तृतं यथा तथा, ननाद / सुषिराणि वंशादिवाद्यानि, उच्चैः उच्चस्तरांराणितांराणनं, ध्वननमित्यर्थः 'रणतेय॑न्ताद्भावे क्तः'अवापुः।आनद्धं मुरजादिवाद्यम्, इयत्तया केनचित् मानेन, अमानं मानरहितं यथा तथा, अध्वनीत् दध्वान, ध्वनतेलुङ / 'अतो हलादेलघोः' इति विकल्पात् वृद्धिप्रतिषेधः / 'ततं वीणादिकं वाद्यमानद्धं मुरजादिकम् / वंशादिकन्तु सुषिरं कांस्यतालादिकं धनम् // ' इत्यमरः॥ 16 // ___ उस समय उस नगर में कांसेके बने ( झाल, मँजीरा, घण्टा आदि ) बाजे अत्यधिक बनने लगे; तारोंवाले (वीणा, सारंगी, बेला, सितार आदि ) बाजे बहुत झंकार करने ( बजने ) लगे ; छिद्रवाले ( बांसुरी आदि ) बाजे उच्च स्वरसे ध्वनि करने लगे और चमड़ेसे मढ़े हुए (नगाड़े, पखावज, ढोलक आदि ) बाजे प्रमाणरहित अर्थात् अत्यधिक बजने लगे। [नलके आनेके समय उस कुण्डिनपुरमें 'घन, तत, सुषिर तथा आनद्ध'-ये चारों प्रकार के बाजे अत्यधिक बजने लगे] // 16 // विपञ्चिराच्छादि न वेणुभिन ते प्रणीतगीतैर्न च तेऽपि झझरैः / न ते हुडुक्केन न सोऽपि ढकया न मर्दलैः साऽपि न तेऽपि ढकया / / - विपञ्चिरिति / विपश्चिः वीणा 'विपन्धिर्वल्लकी वीणा' इति वैजयन्ती / 'कृदिकारात्-' इति विकल्पादीकाराभावः / वेणुभिः वेणुवाद्यैः, न आच्छादि न छादिता, के
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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