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________________ 1004 नैषधमहाकाव्यम् / भावका प्रदर्शन ) करनेवाले भावज्ञानी ( कामी युवक ) ने उन दोनोंमेंसे प्रतिसंकेत करने वाली (प्रथमा सखीको ) छोड़कर उस विदग्धा सखीके साथ अनुरक्त हुआ, जिस ( दूसरी सखी ) ने अपने भावप्रदर्शन नहीं किया, अपितु ( भावप्रदर्शन करनेवाली ) उस मुखीको मना किया / [ किन्हीं दो सखियोंमें अनुरक्त किसी युवकने एक साथ ही अपनी चेष्टा. ओंसे अपना अनुरक्त होना सूचित किया। यह देख उन दोनों से एक सखीने सब लोगोंके सामने ही प्रत्युत्तर में स्वीकृतिसूचक अपना भाव प्रदर्शित किया और उसे भाव प्रदर्शित करती हुई देखकर 'यह युवक तो मुझमें अनुरक्त है तो तुम अपना भाव प्रदर्शित. कर इसे अपनी ओर क्यों आकृष्ट कर रही है ?' इस प्रकार सपत्नीत्वको मनमें रखतो हुई दूसरो सखोने उस भाव प्रदर्शित करने वाली प्रथमा सखीको 'तुम ऐसी निर्लज्ज हो कि सब लोगों के सामने आना कामानुराग इस पुरुष से प्रकट करती हो' ऐसा कहकर मना किया, उसे इस प्रकार मना करते देखकर दूसरेके भावको जाननेवाले उस चतुर युवकने 'ये दोनों मुझसे अनुराग करती हैं। किन्तु इनमें से सब लोगोंके सामने ही अपना भाव प्रदर्शित करनेसे प्रथमा सखी अविदग्ध ( चतुर नहीं ) है, और अपने स्वार्थकी सिद्धिके लिये व्याजान्तरसे मना करती हुई दूसरी सखो विदग्ध है, अत एव उस दूसरी सखीमें हो अनुरक्त हुआ / चतुर पुरुषका अचतुरा प्रथमा सखोको छोड़कर. चतुरा द्वितीया स्त्रीमें भनुरक्त होना उचित हा है ] // 95 // सखी प्रति स्माह युवेगिन्तेक्षिणी क्रमेण तेऽयं क्षमते न दित्सुताम् / विलोम तद्व्यञ्जनमर्प्यते त्वया वरं किमस्मै न नितान्तमर्थिने ? / / 6 / / सखीमिति / युवेगिन्तेक्षिगी युवाभिप्रायसूचकनयनादिचेष्टादर्शिनी, काचित् तरुणीति शेषः / सखी परिवेषिकां वयस्यां, प्रति आह स्म उवाच / 'लट् स्मे' इति भूते लट् / किमिति ? अयं युवा, ते तव सम्बन्धिनी, क्रमेण पारम्पर्येण, दित्सुतां परिविविक्षुतां, न क्षमते न सहते, एकमेकं कृत्वा उत्तरोत्तरक्रमेण परिवेषणविलम्ब सोढुं न शक्नोति इत्यर्थः / अतः त्वया नितान्तमर्थिने अत्यन्तव्यग्रतया याचकाय, अस्मै यूने, वरम् उत्कृष्टं, तद् व्यञ्जने निष्ठान, विलोम विपरीतं यथा तथा, व्युत्क्रमेण इत्यर्थः / किं न अर्यते ? कथं न दीयते ? अपि तु व्यग्राय शीघ्रदेयमिति व्याजोक्तिरिति भावः / अयं युवा, क्रमेण आलिङ्गनस्तनमर्दनचुम्बनादिव्यापारक. मेण, दित्सुतां मथुनाथ वराङ्गदानेच्छुतां, तहानविलम्बमित्यर्थः, न क्षमते न सहते, अतस्त्वया विलोम अरोमकम् , अत एव वरम् उत्कृष्टं, व्यञ्जनम् अवयवः, वराङ्गमित्यर्थः / 'व्यञ्जनं श्मश्रनिष्ठानचिह्वेष्ववयवेऽक्षरे' इति यादवः। नितान्तमर्थिने अस्मै किं न अर्यते ? अपि तु शीघ्रमेवार्पय इत्यर्थान्तरस्यापि विवक्षितत्वात् केवल प्रकृतश्लेषः॥ 96 // (कामी ) युवककी चेष्टाओंको देखनेवाली स्त्रीने सखीसे कहा-'यह ( युवक ) तुम्हारी क्रमशः परोसनेकी इच्छाको नहीं सहन करता है, अतएव अत्यधिक याचने ( मांगने ) वाले
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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