________________ * द्वाविंशः सर्गः। व्यरचि, नतु प्रसन्नकान्यकरणाशक्येत्यर्थः / 'क्वचिस्क्वचिदपि' इत्यनेन तत्र तत्र प्रसा. ताप्यस्तीति न काव्यवहानिरिति सूच्यते / सजनस्य तु ग्रन्थविवेचनोपायमाहश्रदेति / श्रद्धया गुरौ दैवतैकबुद्धया आराद्धन पूजितेन गुरुणा पूर्वमश्लथा अपि श्लथाः कृता व्याख्यया सुबोधाः कृता हढाः स्वरूपतो दुर्बोधा ग्रन्थयो यस्मै स गुरुसंप्रदायावगतार्थः, अत एव दर्पराहित्यारसजनः साधुरेतरकाव्यस्य रसोर्मिरमृत. लहरी तस्यां मजनमवस्थानं समासादयतु प्राप्नोतु / गुरुपरम्परया विनैकस्यापि पद्यस्यार्थो बोद्धं न शक्यते, तस्माद गुरुपरम्पराया एवाध्येयमिदं काव्यमित्यर्थः। "यश्चेदं गुरुपरम्पराया अधीते स सततं सुखी भवतु' इति महाकविस्तस्मा आशिषं ददाति / अस्मिन्पठिती, 'क्तस्येविषयस्य-' इति कर्मणि सप्तमी / आरादेति राधेरनु। दात्तस्वादिढभावः // 3 // __'अपनेको विद्वान् माननेवाला ( किन्तु वास्तविकमें अविद्वान् ) तथा इठसे ( केवल अपनी बुद्धिसे गुरुपरम्परासे नहीं ) इस ( महाकाव्य ) को पढ़नेवाला खल ( वास्तविक माव नहीं समझनेसे दूसरेकी उक्तिको दोषयुक्त बतलानेवाला असज्जन) क्रीडा ('इप्स काव्यमें क्या रखा है ?' इत्यादि अपमानपूर्वक अपने दर्पको प्रकट ) मत करे।' इसी उद्देश्यसे मैंने इस ग्रन्थमें कहीं-कहीं प्रयत्नसे ( जान-बूझकर, अज्ञानपूर्वक नहीं) ग्रन्थको गांठों ( दुरूह विषयों ) को रख दिया है, (जिससे स्वबुद्धिसे ही इस ग्रन्थका वास्तविक तत्त्व जाननेका इच्छुक असज्जन इसे नहीं समझ सके, और ) श्रद्धाके साथ सेवित गुरुके द्धारा शिथिल की गयी है दृढ़ ग्रन्थि जिसके लिए ऐसा सज्जन इस महाकाव्यको रसलहरीमें गोता लगाकर आनन्दको प्राप्त करे अर्थात श्रद्धापूर्वक देवबुद्धिसे गुरुकी पूजा-मक्ति करनेसे उसके द्वारा की गयी व्याख्या आदिसे ग्रन्थके दुरूह विषयको सज्जन सम्यक् प्रकारसे समझे / [ ऐसा कहकर 'श्रीहर्ष कविका यह महाकाव्य प्रसाद गुणते रहित होनेके 'काव्य है ही नहीं' ऐसा आक्षेप करनेवालोंका श्रीहर्ष महाकविने उचित समाधान कर दिया है तथा यह भी स्पष्ट कह दिया है कि गुरुपरम्परासे ही इस महाकाव्यके दुरूह स्थलोंका यथार्थ ज्ञान हो सकता है, अन्यथा नहीं; अत एव सज्जनोंको श्रद्धापूर्वक गुरुकी सेवा करके ही इस ग्रन्थका गमीराशय जानना चाहिये ] // 3 // इदानी पण्डितानन्दजननद्वारा स्वकृतेरभ्युदयमाशास्तेताम्बूलद्वयमासनञ्च लभते यः कान्यकुब्जेश्वराद् यः साक्षात् कुरुते समाधिषु परं ब्रह्म प्रमोदार्णवम् / यत्काव्यं मधुवर्षि धर्षितपरास्तर्केषु यस्योक्तयः / श्रीश्रीहर्षकवेः कृतिः कृतिमुदे तस्याभ्युदीयादियम् // 4 // ताम्बूलेति / यः कान्यकुब्जेश्वरात्सकाशात्सकलपण्डिताधिक्यव्यञ्जनं ताम्बूलइयं विद्वद्योग्यमासनं च लभते / न केवलं राजपूज्य एव, किंतु यः समाधिषु