________________ 1596 नैषधमहाकाव्यम् / नान्यकाव्यविचारकस्येति, अन्ये प्रावतुझ्याः, क्षीरोदतुल्यवाहमिति भावः // 2 // पर्वत-पाषाण प्रत्येक दिशाओं में अपनी ( अपनेसे निकली हुई) नदीको बहावें, और उसका सर्वतोभावसे गिरना प्रकाश्यमान शब्दाडम्बरवालो उस नदी की परस्परमें (एक नदी की दूसरी नदीके साथ ) समानता करे / ( पाठा०-लोक आपात ( ऊपरसे नीचेको ओर सर्वथा गिरने ) से प्रकाशमान..."")। किन्तु वह श्रेष्ठ क्षीरसमुद्र दूसरा ही है ( अथवा-वह क्षीरसमुद्र ही परमश्रेष्ठ है ), जिसका अमृत मथन करनेवालों ( देवो ) का श्रमनाशक तथा अतिशय आनन्ददायक ( अथवा-हर्षकारक ओदनमात अर्थात् मक्ष्य पदार्थ ) कहा जाता है / ( पक्षा०-पर्वतपाषाणतुल्य अन्य कविलोग अपनी वाणी ( काव्य ) को प्रत्येक दिशाओंमें अर्थात् सर्वत्र प्रकाशित करें, सामान्य विचारसे प्रकाशमान शन्दा. डम्बरवाली उस वाणी ( काव्य ) की परस्परमें ( एक दूसरेके रचे गये काव्य ) में तुलना ('इसकी अपेक्षा यह उत्तम है और यह होन है। ऐसा विचार ) करें ( अथवा-दूसरा व्यक्ति थोड़ा विचार करनेसे प्रकाशमान".."")। किन्तु क्षीरसमुद्रके समान अतिशय श्रेष्ठ वह ( सुप्रसिद्ध 'श्रोह' नामक महाकवि मैं ) है, जिसको अमृततुल्य महाकाव्य पढ़ने. वालों के परिश्रमका नाशक तथा परमानन्ददायक कहा जाता है)। [अन्य कविलोगोंकी उक्ति पर्वतीय नदीके समान केवल शब्दाडम्बर करनेवाली, गाम्भीर्यहीन अचिरस्थायिनो तथा तीरस्थ लोगोंको जलमात्र देनेवाली है और मेरी ( 'श्रीहर्ष' महाकविको ) उक्ति क्षीर. समुद्र के समान शब्दाडम्बर रहित, गाम्भीर्ययुक्त, चिरस्थायिनी तथा तीरस्थ लोगोंको भी दूधको धारासे सन्तुष्ट करनेवाली तथा लक्ष्मी, कौस्तुम आदि रूप सुभाषितरत्नोंको देने वाली है। इस प्रकार अन्य कवि पर्वतपाषाणतुल्य तथा मैं क्षीरसमुद्र हूं, अतः मेरे हम महाकाव्यका हो पठन-पाठन-श्रवण, मनन, निदिध्यासन तथा आचरण करना चाहिये // इदानी प्रसादरूप मुख्यगुगामावादतिदुर्बोधस्वादकाव्यमिति ये वदन्ति, तच्छवा. मपनुदन बलदर्पदलनाथं गुरुसंप्रदायेन विना दुर्बोधमित्यतिगाम्भीर्यप्रतिपादनार्थ च बुद्धिपूर्वमेव मयेदं काव्यं तत्र तत्र दुर्बोधं व्यरचीत्याहग्रन्थग्रन्थिरिह कचित् क्वचिदपि न्यासि प्रयत्नान्मया प्राज्ञम्मन्यमना हठेन पठिती माऽस्मिन् खलः खेलतु / श्रद्धाराद्धगुरुश्लथीकृतदृढग्रन्थिः समासादय त्वेतत्काव्यरसोमिमजनसुखव्यासज्जनं सज्जनः // 3 // ग्रन्थेति / आत्मानं प्राज्ञंमन्यन्तं प्राज्ञंमन्यं मनो यस्यैवंविधोऽस्मिन्काव्ये हठेन स्त्रीय प्रज्ञावलेन पठितमस्यास्तीति पठिती इदंकाव्यस्य पाठकः खलो मा खेलतु 'किम. नास्ति अश्रुतमेव व्याकतुं शक्यते' इत्यवज्ञापूर्वादाभिव्यक्ति मा कादित्येवमर्थमिह काव्ये क्वचिवचिदपि तत्र तत्र स्थले मया प्रयत्नाद् बुद्धिपूर्व ग्रन्थग्रन्थिग्रंथ्यमानश. ब्दार्थकुटिलिका न्यासि विन्यस्ता खलमुखमनार्थ बुद्धिपूर्वमेवेदं काम्यं मया दुर्बोधं