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________________ 1246 नैषधमहाकाव्यम् / असुरेति / दितिसुतानां दैत्यानाम् , गुरुः उपदेष्टा शुक्राचार्यः, असुरेभ्यः दैत्येभ्यः, हितमपि हितकरमपि, निशायामेव असुराणां बलवृद्धेरिति भावः / 'चतुर्थी तदर्थार्थ-' इत्यादिना समासः / अन्यत्र-असुभिः प्राणैः, रहितं विहीनम् , अचे. तनमपीत्यर्थः / आदित्योत्था सूर्योद्भूताम् ; कचप-देवोद्भताम् , देवानामनु. रोधेनैव कचस्य तत्रागमनात् तद्विपत्तेः तदुत्थत्वव्यपदेशः। विपत्तिं विनाशम् , उपागतं प्राप्तम् , तमः अन्धकारम् , कचवत् बृहस्पतिसुतं कचमिव, बृहस्पतिपुत्रः कचः देवताप्रेरितः सञ्जीवनी विद्यार्थ शुक्रमुपागतः, स दैत्यहतः पुनः शुक्रणोज्जीवितः इति भारती कथा। प्राणैः असुभिः, योक्तुं सङ्घटयितुम् , कण्ठे गलमध्ये, लुठती परावर्त मानाम् , सदा तिष्ठन्तीमित्यर्थः / 'आच्छीनद्योर्नुम्' इति विकल्पान्नुमभावः / मृत. जीवनी मृतसञ्जीवनीम् , विद्यां ज्ञानम् , मन्त्रमिति यावत् , न पठति किम् ? न अधीते किम् ? अपि तु पठेदेव यदि, अयं शुक्रः, सन्ध्यामौनव्रतव्ययात् सन्ध्यायां प्रातः सभ्यायाम् , यत् मौनव्रतं वाक्संयमनियमः, तस्य व्ययात् भङ्गात् , भीरुतां भयशीलताम् , न वहते न धत्ते, अन्यथा कथमोहक विद्यावानपि पुरोवर्तिनं स्वशि. प्यासुररहितकरान्धकारविनाशमुपेक्षते इति भावः // 15 // * दैत्यगुरु (शुक्राचार्य ) देवों ( पक्षा-सूर्य ) से उत्पन्न विपत्ति ( मरण, पक्षा०विनाश ) को प्राप्त (रात्रिचर होनेसे ) असुरों के हितकर ( पक्षा०-प्राण-रहित ) भी अन्धकारको 'कच' ( नामक बृहस्पति-पुत्र ) के समान प्राणोंसे युक्त करने अर्थात् जीवित करने के लिए कण्ठमें लोटती हुई अर्थात् कण्ठस्थ ( अतिशय अभ्यस्त ) मृतसञ्जीवनी विद्याको क्या नहीं पढ़ते ? अर्थात् अवश्य ही पढ़ते, यदि प्रातः सम्ध्यामें गृहीत मौनव्रतके मङ्ग हो- से नहीं डरते / [ जिस प्रकार देवों के कारण प्राप्त मृत्युवाले 'कच' को दैत्यगुरु शुक्राचार्य ने मृतसञ्जीवनी विद्या पढ़कर जीवित कर दिया, उसी प्रकार सूर्यसे उत्पन्न नाशको प्राप्त किये हुए असुरहितकारी अन्धकारको वह शुक्राचार्य मृतसञ्जीवनी विद्या पढ़कर अवश्य जीवित कर देते, किन्तु वे प्रातःसन्ध्याका मौनव्रत लेने के कारण उसके मङ्ग होनेपर दोष लगनेके भयसे वैसा नहीं करते हैं, अन्यथा वें सूर्यसे नष्ट हुए असुरों ( स्वशिष्यों ) के हितकारी अन्धकारको मृतसञ्जीवनी विद्या पढ़कर नामको अवश्यमेव जीवित कर देते ] // 15 // पौराणिक कथा-देवासुर संग्राममें मरते हुए देवपक्षको देखकर दैत्यगुरु शुक्राचार्यके पास उनसे मृतसञ्जीवनी विद्या पढ़ने के लिए बृहस्पतिपुत्र 'कच' को देवोंने भेजा तो उसके अभिप्रायको जानकर दैत्योंने उसे मार डाला, किन्तु दैत्यगुरु शुक्राचार्यने मृतसञ्जीवनी विद्यासे उस कचको पुनः जीवित कर दिया। यह महाभारतकी कथा है। उदयशिखरिप्रस्थान्यह्ना रणेऽत्र निशः क्षणे दधति विहरत्पूषाण्युष्मद्रुताश्मजतुस्रवान् | उदयदरुणप्रतीभावादरादरुणानुजे मिलति किमु तत्सङ्गाच्छङ्कथा नवेष्टकवेष्टना ? // 16 / /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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