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________________ षोडशः सर्गः। 661 गये हुए ) दृष्टिमार्गको जिसने ऐसा होता हुआ जिस प्रकार हर्ष नहीं दिया; उसी प्रकार उस ( घोड़े ) से धूलियुक्त ( पक्षा०-सूखे हुए ) कण्ठनालवाला अर्थात् लक्षणसे उत्कण्ठित करता हुआ जो घोड़ा हर्ष नहीं दिया ( अथवा पाठा०-उस दर्शनेच्छाके विषयमें आदरके वशीभूत करनेसे ही रेणुयुक्त कण्ठनालताको देता अर्थात् उत्कण्ठित करता हुआ उसी प्रकार हर्ष नहीं दिया। [ दूरस्थ उस घोड़ेको देखनेके लिए बहुत उत्कण्ठित होकर दर्शक बहुत दूर तक नेत्रद्वयको फैलाये हुए था, किन्तु वह घोड़ा वेगके कारण दृष्टिके समीप आकर ( या-समीप आनेसे दृष्टि प्रतिरोध रहित कर भी ) नेत्रोंसे ओझल हो जानेसे उन्हें (दोनों नेत्रोंको) हर्ष नहीं दिया अर्थात् उस घोड़े को अच्छी तरह नहीं देख सकनेके कारण नेत्रद्वय हर्षित नहीं हुए, किन्तु दर्शकने सोचा कि यद्यपि इस बार घोड़ा वेगके कारण नेत्रोंसे ओझल हो गया और मेरे नेत्र उसे अच्छी तरह नहीं देख सके, तथापि लौटती बार यह घोड़ा अपनेको अच्छी तरह दिखाकर मेरे नेत्रोंको हर्षितकर देगा किन्तु इस बार भी उस घोड़ेकी खुरसे उड़ी हुई धूलिसे नेत्रोंके भर जानेके कारण वह घोड़ा दर्शकके नेत्रद्वयको फिर भी हर्षित नहीं किया अर्थात् दर्शकको घोड़ा देखनेकी उत्कण्ठा पूर्ववत् ही बनी रही / पक्षा०-जल रहित कर दिया है दूर तक दृष्टिमार्गको जिसने ऐसा वह पिपासु (प्यासे हुए ) के लिए नहीं ही देगा, किन्तु उस पिपासुके कण्ठको धूलियुक्त अर्थात सूखा ही कर देता है, क्योंकि उसे ( प्यासे हुएको ) तो जलसहित मार्ग हर्ष दे सकता है, जलरहित नहीं। जिस घोड़को दर्शक वेगके कारण दूरसे समीप आकर नेत्रसे ओझल होनेसे तथा लौटते समय उससे उड़ी हुई धूलिसे नेत्रको भर जानेसे अच्छी तरह नहीं देख सके और उसके देखने के लिए उत्कण्ठित ही रह गये; ऐसे घोड़े को राजा भीमने नलके लिए दिया ऐसा पूर्व श्लोक ( 16 / 25 ) से सम्बन्ध समझना चाहिये ] // 26 // दिवस्पतेरादरदर्शिनाऽदरादढौकि यस्तं प्रति विश्वकर्मणा / तमेकमाणिक्यमयं महोन्नतं पतग्रहं ग्राहितवान् नलेन सः / / 27 / / दिवस्पतेरिति / दिवस्पतेः इन्द्रस्य, दमयन्तीरागिणः इति भावः। 'तत्पुरुषे कृति बहुलम्' इति षष्ठया अलुकि कस्कादित्वाद् विसर्जनीयस्य सत्वम् / आदरदर्शिना भीमं प्रति समादरं पश्यता, विश्वकर्मणा देवशिल्पिना, तं भीमं प्रति, आदरात् स्वप्रभोरिन्द्रस्य भैम्यामनुरागित्वात् भीमे आदरदर्शनात् स्वस्यापि तस्पितरि भीमे समादरदर्शनमुचितमिति भीमे आदरप्रदर्शनाद्धेतोरित्यर्थः / यः पतद्ग्रहः, अढौकि उपाहाररूपेण प्रेरितः ढोकतेर्गत्यर्थे ण्यन्तात् कर्मणि लुङ् / तं विश्वकर्मदत्तम्, एकमा. णिक्यमयम् एकमात्रपद्मरागाख्यमणिनिर्मितं, महती उन्नतिः यस्य तम् अत्युनतम् अत्युत्कृष्टमित्यर्थः, पतत् मुखादिभ्यः स्त्रवत् ताम्बूलादिकंगृह्णातीति तं पतद्ग्रहं प्रतिग्राहं, 'पिकदानी' इति ख्यातं निष्ठयतताम्बूलभाजनमित्यर्थः, 'प्रतिग्राहः पतद्ग्रहः' इत्यमरः / 'विभाषा ग्रहः' इति ण-प्रत्ययाभावपक्षे 'नन्दिग्रहिपचादिभ्यः-'
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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