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________________ 867 चतुर्दशः सर्गः। अतएव दूसरेके साथ ही स्त्रीके पास भी जाना चाहिये' ऐसी नीति है, किन्तु जडाधिप वरुणने 'द्वितीयेन सहेति सहद्वितीयः' अर्थात दूसरेके साथ, इस अर्थवाले 'सह द्वितीय शब्दका 'द्वितीयया ( अर्थात् भार्यया ) सहेति सहद्वितीयः' अर्थात् भार्या के साथ ऐसा अर्थ लगाकर 'जो पुरुष भार्या के साथ दूसरी स्त्रीके पास जायेगा, वह उसे (दूसरी स्त्रीको) कैसे पायेगा, क्योंकि अन्य स्त्रीसे अनुगत पुरुषको कोई स्त्री भला कैसे वरण कर सकती है ? अर्थात् कदापि नहीं वरण कर सकती' ऐसा विपरीत आशय उस नीतिका समझकर असहाय ( भार्याहीन ) ही रह गये अर्थात् 'सर्वत्र दूसरेके साथ ही जाना चाहिये' इस नीतिका उक्त विपरीताशय समझकर पहले दमयन्तीको प्राप्त करनेकी आशासे अपनी भार्याको छोड़कर स्वयंवरमें उपस्थित हुए, किन्तु दमयन्तीके नलका वरण कर लेनेपर यहां असफल होनेसे अनादरकर छोड़ी गयी अपनी स्त्रीका लाभ भी अशक्य मानकर वे वरुण असहाय ( भार्यारहित, पक्षा०-अकेला) ही रहे ] // 65 // देव्याऽपि दिव्या स्वंतनुः प्रकाशीचक्रे मुदश्चक्रभृतः सृजन्त्या | अनिह्न तैस्तामवधार्य चिह्नस्तद्वाचि बाला शिथिलाऽद्भुताऽभूत् / / 6 / / देव्येति / अथ इन्द्रादीनां स्वरूपधारणानन्तरं, चक्रभृतः गगनगतस्य विष्णोः, मुदः हर्षान् , सृजन्त्या उत्पादयन्त्या, देव्या सरस्वत्याऽपि, दिव्या स्वतनुः प्रकाशीचक्रे वाणी अपि मानुषीवेषमुत्सृज्य निजरूपमाविश्वकारेत्यर्थः, तदा बाला दमयन्ती, अनिह्नतैः प्रकाशितैः, चिह्नः वीणांशुकपुस्तकादिभिः, ताम् अवधार्य सरस्वतीति सम्यक निश्चित्य, तस्याः वाचि श्लेषवक्रोक्तिव्यञ्जकवागुपन्यासे, शिथिलाद्भुता देव्यां मानुषीत्वबुद्धधा तादृशोक्तिविषये प्राक् साश्चर्या आसीत् , स्वरूपप्रकाशानन्तरं सरस्वत्यास्तादृशोक्तौ न किमपि आश्चर्यम् इति शिथिलितविस्मया, अभूत् / / 66 // विष्णु भगवान्का हर्ष बढ़ाती हुई ( सरस्वती) देवीने भी अपने दिव्य (श्वेत वस्त्र, वीणा-पुस्तक-अक्षमाला और अभयमुद्रायुक्त हाथ, एवं हंसवाहनवाले ) शरीरको प्रकट किया, ( पाठा०-अनन्तर देवीने भी विष्णु भगवान्को हर्षित करते हुए अपने दिव्य शरीरको प्रकट किया ) / ( उस समय ) बाला दमयन्तीने प्रकट ( उक्त वीणादि) चिह्नोंसे उसको पहचानकर उसके ( श्लेषादिपूर्ण) वचन में होनेवाले अपने आश्चर्यको शिथिल कर दिया / [ जब तक सरस्वती ने अपना दिव्यरूप धारण नहीं किया था, तबतक उसके इलेषादि पूर्ण वचनोंको सुनकर दमयन्तीको बहुत आश्चर्य हो रहा था कि 'ऐसे वचनोंको कोई 1. तदुक्तम्-'मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत् / _ . बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति // ' इति मनुः / (2 / 215) अपरञ्च-कामिनी कामयेदेव निर्जने पितरं सुतम् / __सद्वितीयोऽभ्युपेयात्तामतः परिणतामपि // ' इति / 2. 'नु तनुः' इति पाठान्तरम्। 3. 'सृजन्ती' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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