________________ षोडशः सर्गः। अंधत्त बीजं निजकोर्तये रदौ द्विषामकोत्त्य खलु दानविषः ? / श्रवश्रमैः कुम्भकुचां शिरः श्रियं मुंदे मदस्वेदवतीमुपास्त यः ? // 33 // अधत्तेति / यः गजः, निजकीतये स्वयशसे कीर्तिप्ररोहायेत्यर्थः। रदौ दन्तौ एव, बीजम् अङ्कुरोद्गमकारणं, तथा द्विषां शत्रूणाम, अकीत्यै अयशसे, अकीर्तिप्ररो. हाय इति भावः / दानविपुषः मदबिन्दून् एव, बीजम् अधत्त खलु ? धारयामास किम् ? दन्ताभ्यां परेषां विदारणात् निजकोयुत्पत्तिरिति तथा मदगन्धेनैव परगजानां भीत्या पलायनात् तेषामकीयुत्पत्तिरिति च भावः / कीर्त्यकीयोः सितासित. स्वात् सितासितयोरेव दन्त-दानकणयोः कीर्त्यकीर्तिबीजत्वेनोस्प्रेक्षा। किञ्च, कुम्भावेव कुचौ यस्यास्ताम्, अन्यत्र-कुम्भौ इव कुचौ यस्याः तां, मदस्वेदवती मदजलरूपधर्मोदकवतीम् , अन्यत्र-मदजलवत् स्वेदवतीमिति सात्विकोक्तिः, शिर:श्रियं शिरःशोभां, श्रवसोः कर्णयोः, श्रमैः व्यापारैः, कर्णतालैरेव व्यजनवातैरिति भावः / मुदे स्वेदापहरणात्तस्याः हर्षाय, उपास्त असेवत किम् ? इत्युत्प्रेक्षात्रयस्य संसृष्टिः // 33 // जो हाथी अपनी कीर्तिके लिए ( श्वेत ) दो दाँतरूप बीजको तथा शत्रुओंकी अकीर्तिके लिए ( कृष्ण ) मदजलके बूंदोंको धारण करता था क्या ? और कुम्भरूपी ( पक्षा०-कुम्भके समान विशाल ) स्तनोंवाली तथा मदजलरूप ( पक्षा०-मदजलके समान ) पसीनेवाली शिरःशोभा ( पक्षा०-शिरकी शोभारूपिणी नायिका ) को हर्ष अर्थात् प्रसन्न करनेके लिए ( पाठा०-हर्षके साथ ) कानोंके प्रयाससे अर्थात् कानोंको सञ्चालितकर पंखेसे हवा करके सेवा करता था ( 'उस हाथीको राजा भीमने नलके लिए दिया' ऐसा पूर्व (16 / 31) श्लोकसे सम्बन्ध समझना चाहिये ) / [ शत्रुओंको दन्तप्रहारसे मारकर विजय प्राप्त करनेसे कीर्ति उत्पन्न होनेके कारण श्वेत कीर्तिका श्वेत वर्ण बीजरूप दाँतका होना उचित ही है / तथा मद-जलके अतितीव्र गन्धको सँघते ही शत्रुओंके हाथियोंको युद्धभूमिसे भाग जाने के कारण शत्रुओंको अकीर्ति होनेके कारण कृष्ण वर्ण अकीर्तिका कृष्णवर्ण बीजरूप मदजलका होना भी उचित ही है / और जिस प्रकार कोई नायक कुम्मके समान विशाल स्तनोंवालो रतिश्रान्त होनेसे पसीनेसे युक्त नायिकाकी पंखोंसे हवा करके सेवा करता है, उसी प्रकार यह हाथी मस्तकस्थ कुम्भरूप स्तनोंवाली तथा मदजलरूप स्वेदसे युक्त मस्तक-शोभारूपिणी नायिकाकी प्रसन्न करने के लिए कानरूप पंखेसे हवा करता है, इस प्रकार यहां तीन उत्प्रेक्षाएँ की गयी हैं ] // 33 // न शातकुम्भेषु न मत्तकुम्भिषु प्रयत्नवान् कोऽपि न रत्नराशिषु / / 34 / / नेति / तेन भीमेन, विवाहे दक्षिणीकृतेषु वराय दक्षिणास्वरूपेण दत्तेषु इत्यर्थः, 1. 'वभार' इति पाठान्तरम् / 2. 'मुदा' इति पाठान्तरम् /