________________ 164 नैषधमहाकाव्यम् / स्रावमिषात् , सदा वर्षकं वर्षणशीलमिति सापह्नवोत्प्रेक्षा / 'लषपत-' इत्यादिना उकञ्प्रत्ययः / यं सिन्धुरं, सः भीमः तस्म नलाय अदत्त दत्तवान् , यत्तदोनित्य सम्बन्धादव स इति पदमूहनीयम् / सः नलसास्कृतसिन्धुरः, दुर्वाससं विरोध्य मालात्यागादेव क्रोधयित्वा, अस्य दुर्वाससः सम्बन्धिनी, दुर्वाससा इन्द्राय दत्ताम्. इन्द्रेणापि ऐरावतकुम्भे स्थापितामित्यर्थः / स्त्र माल्यं, त्यजन् शुण्डया भुवि क्षिपन्, इन्द्रसिन्धुरः इन्द्रगजः, ऐरावतः इत्यर्थः / दिवः स्वर्गात् , अस्खलत् तदभिशापवशात् भ्रष्टः, किम ? स्वदत्तस्त्रक्ल्यागापराधनिमित्तात् दुर्वाससः शापात् दिवश्च्युत. ऐरावत एवायं किमित्युत्प्रेक्षा // 31 // मानो ऐरावत ( इन्द्र-गज ) होने के कारण ( पाठा०-ऐरावत होने के कारण ही ) मदके बहानसे सर्वदा वर्षणशील अर्थात निरन्तर मदवृष्टि करनेवाले जिस हाथीको उस (राजा भीम ) ने उस ( नल ) के लिए दिया, मालाका त्याग करता हुआ वह इन्द्र-गज ( ऐरावत) दुर्वासा मुनिसे विरोधकर स्वर्गसे स्खलित हुआ अर्थात् भूलो कमें आ गया है क्या ? // 31 / / पौराणिकी कथा-किसी समय ऐरावत हाथी पर चढ़कर जाते हुए इन्द्र के लिए प्रसन्न दुर्वासा ऋषिने मन्दारपुष्पोंकी माला दी, उस मालाको इन्द्रने ऐरावतके मस्तकमें पहना दिया और उसने उसको संडसे निकालकर नीचे फेक दिया, इस कार्यसे सुलभकोप क्रुद्ध दुर्वासा ऋषिने उस ऐरावतको शाप दिया कि 'मेरी दी हुई मन्दारमालाको तुमने नीचे फेक दिया है, अत एव तुम भी नीचे गिरो' / मदान्मदने भवताऽथवा भिया परं दिगन्तादपि यात जीवत / इति स्म यो दिक्करिणः ! स्वकर्णयोर्विनाऽऽह वर्णस्रजमागतैर्गतैः? // मदादिति / 'दिक्करिणः! दिग्गजाः! मदात् बलगर्वात् , मदने ममाग्रे, भवत योद्ध तिष्ठत इत्यर्थः। अथवा भिया बलाभावजनितभयेन, दिगन्तात् अपि दिकप्रान्तादेव, दूरादेवेत्यर्थः। परं दूरं यात गच्छत, जीवत पलायित्वा यथा कथञ्चित् प्राणान् धारयत, सर्वत्र यूयमिति शेषः / यः गजः, इति इत्थं, वर्णस्रजम् अक्षरपङ्क्तिं, विनेव वागजालमन्तरेणैवेत्यर्थः / स्वकर्णयोः आगतैर्गतैः यातायातः, केवलं कर्णसञ्चालनैरेवेत्यर्थः। आह स्म ब्रूते स्म किम् ? इत्यर्थः / गम्योत्प्रेक्षा। 'लट् स्मे' इति भूते लट , 'ब्रवः पञ्चानामादित-' इत्यादिना णलाहादेशौ // 32 // जो हाथी अक्षर-समूहके बिना ही कानों के गमनागमन अर्थात् हिलानेसे 'हे दिग्गजों ! ( यदि तुम लोगोंको मदाभिमान है तो ) मदसे मेरे सामने (युद्ध करने के लिए) आवो, अथवा ( यदि मदाभिमान नहीं है तो मेरे ) भयसे दिगन्तके भी पार अर्थात बहुत दूर जावो ( और इस प्रकार ) जीवो अर्थात् अपने प्राणोंकी रक्षा करो' ऐसा कह रहा था / ( उस हाथीको राजा भीमने नलके लिए दिया, ऐसा पूर्व (16 / 31) श्लोकसे सम्बन्ध समझना चाहिये ) // 32 //