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________________ षोडशः सर्गः। हारत्वेन यन्मरकतभाजनं दत्तमित्यर्थः। सः भीमः हरिन्मणेः गारुस्मतमणेः सम्बन्धि, मरकतमणिमयमित्यर्थः। भोजनद्रव्यमिश्रितविषनाशयोग्यमिति भावः। महत् भोजनभाजनं भोजनपात्रं, भोजनपात्ररूपमित्यर्थः, तामपि मयकृतपूजामपीत्यर्थः, नैषधाय नलाय अदत्त // 29 // ___ भगवान् भीम (शङ्करजी ) की पूजा करते हुए 'मय' नामक दानवने प्रभु ( शङ्करजी) के नामवाले राजा (भीम ) की भी जो पूजा की अर्थात् जिस पन्ना मणिके बने हुए विषदोषनाशक भोजनपात्र ( थाल ) को दिया, उस हरिन्मणि ( पन्ना ) के बने हुए बड़े भोजनपात्र ( थाल ) को राजा मीमने भी नल के लिए दे दिया // 29 // छदे सदैवच्छविमस्य बिभ्रतां न केकिनां सर्पविषं प्रसर्पति / न नीलकण्ठत्वमधास्यदत्र चेत् स कालकूटं भगवानभोक्ष्यत / / 30 / / छदे इति / अस्य गारुत्मतभाजनस्य, छविं नीलां कान्ति, सदा सर्वदा एव, छदे पक्षे, बिभ्रतां दधतां, केकिनां मयूराणां सम्बन्धे, 'सर्पविषं न प्रसर्पति न तच्छरीरं व्याप्नोति / सः भगवान् ईश्वरः अपि, अत्र गारुत्मतभाजने, कालकूटं हलाहलम, अभोच्यत चेत् भुञ्जीत यदि, क्रियातिपत्तौ लुङ 'भुजोऽनवने' इति तङ्। तदा नीलकण्ठत्वं न अधास्यत् , तदभावात् कालकूटविषस्य कण्ठव्यापित्वेन नीलकण्ठत्वं जातमस्येत्यर्थः यत्सावात् केकिनः विषभयशन्याः, तत्पात्रे भोजने किं वक्तव्यम् इति भावः॥३०॥ जिस (विष-दोषनाशक हरिन्मणिनिर्मित भोजनपात्र ) .की कान्ति अर्थात् हरापनको सदैव अपने पङ्खमें धारण करनेवाले मयूरोंपर सर्पविष नहीं आक्रमण ( असर ) करता ( हानि पहुंचाता-मारता ) है; इस भोजनपात्रमें यदि वह शङ्करजी कालकूट ( समुद्रमथन के समय निकला हुआ अतीव तीब्र विष ) पीते तो वे नीलकण्ठ नहीं होते। [जिस भोजनपात्रके कान्तिमात्रको पङ्खमें धारण करनेसे सांपका विष मोरोको कुछ हानि नहीं पहुंचाता, उस भोजन पात्र में कालकूट विषको पान करनेसे शङ्करजीका कण्ठ भी उसके दोषसे नीला नहीं पड़ता, किन्तु शङ्करजीने कालकूट विषको इस भोजनपात्रमें रखकर नहीं पीया, अत एव उस विष के दोषसे उनका कण्ठ नीला हो गया // भीमने विषदोषनाशक वह हरिन्मणिमय भोजनपात्र नलके लिए दिया ] // 30 // विरोध्य दुर्वाससमस्खलदिवः स्रजं त्यजन्नस्य किमिन्द्रसिन्धुरः ? / अदत्त तस्मै स मदच्छलात् सदा यमभ्रमातङ्गतयेव वर्षकप // 31 / / विरोध्येति / अभ्रमातङ्गतया ऐरावतत्वेनेव, ऐरावतत्वहेतुकमिव इत्यर्थः / 'ऐरावतोऽभ्रमातङ्गरावणाभ्रमुवल्लभाः' इत्यमरः। अथवा-अभ्रवत् श्यामवर्णत्वात् जल. धरसदृशः मातङ्गः हस्ती, तस्य भावस्तत्ता तयेव तद्धेतुकमिव, मदच्छलात् दानजल 1. '-तयैव' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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