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________________ अष्टादशः सर्गः। 1166 ईक्षितोपदिशतीव नर्तितुं तत्क्षणोदितमुदं मनोभुवम् / कान्तदन्तपरिपीडिताधरा पाणिधूननमियं वितन्वती / / 89 // ईक्षितेति / कान्तस्य प्रियस्य, दन्तैः दशनैः परिपीडिताधरा दंशनेन व्यथितरदनच्छदा, अत एव पागिधूननं तनिवारणाय करकम्पनम् , वितन्वती कुर्वती, इयं दमयन्ती, तरक्षणे सुरतकाले, उदितमुदं स्वप्रभावदर्शनात् सञ्जातहर्षम् , मनोभुवम् अनङ्गम् , नर्तितुं नृत्यं कत्तम् , उपदिशतीव इत्थं नृत्यं कुरु इति शिक्षयन्ती इव, स्थितेति शेषः। 'आच्छीन?नुम्' इति विकल्पान्नुमभावः। ईक्षिता दृष्टा, प्रियेणेति शेषः / नृत्यशिक्षको हि हस्तनतनेनैव स्वशिष्यान् नर्तितुं शिक्षयतीति लौकिकाः // 89 // ___ पति ( नल ) के दन्तोंसे पीड़ित अधरवाली ( अत एव निषेधार्थ) हाथको फैलाती हुई उस ( दनयन्ती ) को ( नलने ) उस समयमें हर्षित कामदेवको नृत्य करनेके लिए शिक्षा देती हुई-सी देखा / [ चुम्बनके समय दांतोंसे अधरके पीड़ित होनेपर दमयन्तीने हाथको फैलाकर वैसा करनेसे जो मना किया, तो नलको मालूम पड़ा कि मानो वह उस समय हर्षित हुए कामदेवको नृत्य सिखा रही हो / लोकमें भी कोई व्यक्ति किसी शिष्यको नृत्य खिलाते समय हाथ घुमा-घुमाकर शिक्षा देता है ] // 89 // सा शशाक परिरम्भदायिनि गाहितुं बृहदुरः प्रियस्य न | चक्षमे स च न भङ्गुरभ्रवस्तुङ्गपीनकुचदरतां गतम् / / 90 // सेति / परिरम्भदायिनी आलिङ्गनप्रदायिनी, सा भैमी, प्रियस्य नलस्य, बृहत् विशालम् , उरः वक्षःस्थलम् , गाहितु प्रवेष्टुम् , साकल्येनामिव्याप्तुमित्यर्थः / न शशाक न चक्षमे, नलोरास्थलमपेक्ष्य स्वस्य क्षीणाङ्गत्वादिति भावः / इत्याश्रयाधिक्येनाधिकालङ्कारभेदः / सः च नलोऽपि, भङ्गुरभ्रवः सुवतिमभ्रशालिन्याः प्रिया. याः, तुङ्गपीनकुचाभ्याम् उन्नतस्थूलपयोधराभ्याम् , दूरतां व्यवधानम् , गतं प्राप्तम् , उरः गाहितुमिति पूर्वेणान्वयः, न चक्षमे न शशाक / कुचयोरोन्नत्यस्थी. ल्याभ्यां व्यवहितत्वादिति भावः / इति सम्बन्धेऽप्यसम्बन्धरूपातिशयोक्तिः // 90 // ____ आलिङ्गन देती हुई (कृशाङ्गी) वह (दमयन्ती) प्रियके विशाल वक्षःस्थलको (सम्पूर्णतया) आलिङ्गन नहीं कर सकी, तथा वे नल भी कुटिल भ्रूवाली (दमयन्ती) के ऊंचे-ऊंचे स्तनोंसे दूरस्थ (दमयन्तीके) वक्षःस्थलका सम्पूर्णतया आलिङ्गन नहीं कर सके / [ दमयन्ती स्वयं. कृशाङ्गी थी और नलकी छाती चौड़ी थी, अत उसका सम्पूर्णतया वह आलिङ्गन नही कर सकी तथा दमयन्तीके स्तन ऊंचे-ऊंचे थे, अतः उसकी छातीसे नलकी छाती दूर ही रह जाती थो-सटती नहीं थी-इस कारण वे भी प्रियाकी छातीका सम्पूर्णतया आलिङ्गन नहीं कर सके / आलिङ्गनेच्छा अपूर्ण होनेसे दोनों उद्दीप्तकाम ही रह गये ] // 9 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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