________________ 1168 नैषधमहाकाव्यम् / अभीष्टको उस दमयन्तीने पूरा कर लिया ] // 86 // स्वेप्सितोद्गमितमात्रलुप्तया दीपिकाचपलतया तमोघने / निविशङ्करतजन्मतन्मुखाकृतदर्शनसुखान्यभुङ्क्त सः / / 87 / / स्वेति / सः नलः, तमः अन्धकार एव, घनः मेघः तस्मिन् , स्वेप्सितेन निजेच्छामात्रेणैव, उद्गमितमात्रं प्रज्वलनक्षणमेव, लुप्ता विनष्टा तया तथोक्तया, क्षणिक येत्यर्थः / दीपिका प्रदीप एव, चपला विद्यत् तया तद्वारा इत्यर्थः। 'विद्यच्चञ्चला चपलाऽपि च' इति यादवः / निर्विशङ्करतात् अन्धकारजन्यनिरुद्वेगरमणात् , जन्म सम्भवः / येषां तादृशानाम् , तस्याः, भैम्याः, मुखाकूतानां वदनचेष्टितानाम् , दर्श नात् अवलोकनात् , यानि सुखानि हर्षाः तानि, अभुङ्क्त अन्वभूत् / स्थिरप्रकाशे तद्विस्रम्भविघावभयात् क्षणिकप्रकाशेन तन्मुखदर्शनसुखम् अनुभूतवान् इत्यर्थः।।८७॥ उस नलने अन्धकाररूपी मेघ ( पक्षा०-मेघतुल्य अन्धकार ) में अपनी इच्छामात्रासे जलकर तत्काल बुझे हुए दीपकरूपी बिजलीसे निश्शङ्क किये जाते हुए सुरतमें उत्पन्न दमयन्ती के मुखाभिप्रायके दर्शनके सुखोंको प्राप्त किया। [जिस प्रकार काले-काले मेवमें क्षणमात्र बिजली चमककर शान्त हो जाती है, उसी प्रकार वरुणके दिये हुए वर (14174) के प्रभावसे नलकी इच्छामात्रासे दीपक भी क्षणमात्र जलकर बुझ जाता था और पहले अन्धकार होनेसे निश्शङ्क होकर सुरत करती हुई दमयन्तीके मुख में कैसे भाव हो रहे हैं, इसे दीपकके क्षणिक प्रकाशमें देखकर नल सुखका अनुभव कर रहे थे ] // 87 // यद्धृवौ कुटिलिते तया रते मन्मथेन तदनामि कार्मुकम् / यत्तु हुं हुमिति सा तदा व्यधात्तत् स्मरस्य शरमुक्तिहुकृतम् / / 8 / / अथ तन्मुखाकूतान्येवाह-यदित्यादि / तया भैम्या, रते सुरतकाले, यत् ध्रुवौ भ्रद्वयम् , कुटिलिते सुखातिरेकात् सोचिते, तत् एव भ्रकुटिलीकरणमेव, मन्मथेन कामेन, कार्मुकं धनुः, अनामि नमितम् , आकर्षीत्यर्थः / तस्या भ्रद्वयस्य कामकामकवत् मनोहरत्वादिति भावः / किञ्च, सा भैमी, तदा रमणकाले, हूँ हम् इति यत् व्यधात् सुखातिरेकात् 'हूं हुं' इति यत अव्यक्तशब्दम् अकरोत् , तत्तु तत् हुङ्क्त. मेव, स्मरस्य कामस्य, शरमुक्तिहुकृतं बाणमोक्षस्य हुङ्कारस्वरूपम् , अभूदिति शेषः / तत् सर्वं तस्य अधिकमुद्दोपकम् अभूत इति भावः // 88 // ___ उस (दमयन्ती) ने सुरतमें जो भ्रूद्वयको टेढ़ा किया, वह कामदेवने (मानो) अपने धनुषको झुकाया, तथा उस ( दमयन्ती) ने जो 'हुँ, हुँ' शब्द किया, वही (मानो) कामदेवके बाण छोड़नेका हुङ्कार हुआ [ सुरतकालमें दमयन्तीके भ्रूद्वयको टेढ़ा करना तथा 'हुं, हुँ' शब्द करनेसे फिर काम बढ़ गया / धनुर्धरलोग धनुषको झुकाकर बादमें हुङ्कार करते हुए बाण छोड़ते हैं ] // 88 //