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________________ अष्टादशः सर्गः / 1167 प्रार्थनारूपामित्यर्थः / पुनः न करवाणि ? न पालयामि ? इति नो न, अवश्यमेव करवाणीत्यर्थः / हुमिति अनुनये, त्यज त्यज मां मुश्च मुञ्च, ते तव, किकरा दासी। 'किंयत्तद्वहुषु कृमोऽविधानम्' इत्यचप्रत्यये टाप / अस्मि भवामि / अतस्तवाभिलाषः सर्वथैव पूरणीयो मयेति भावः // 85 // ___ 'यह मैं तुमको चुम्बन करती हूँ , यह मैं तुमको नखोंसे चिह्नित करती हूँ, यह मैं तुम्हारा आलिङ्गन करती हूँ, यह मैं तुम्हें हृदयपर रखती हूँ' फिर तुम्हारी बात नहीं करूँगी ऐसा नहीं होगा अर्थात् फिर मैं तुम्हारी सुरतयाचनाको बातको मानूंगो हो, हुं, छोड़ो-छोड़ो, तुम्हारी मैं दासी हूँ-' // 85 // इत्यलीकरतकातरा प्रियं विप्रलभ्य सुरते ह्रियं च सा | चुम्बनादि वितातर मायिनी किं विदग्धमनसामगोचरः ? // 86 // __ इतीति / इति इत्थम् , अलीकं मिथ्या यथा तथा, रते रमणे, कातरा असमर्था, कपटेनैव रतकातयं नाटयन्ती न पुनस्तत्वत इति भावः / मायिनी वाक्छलचतुरा, सा भैमी, सुरते रमणकाले, प्रियं नलम् , हियञ्च लज्जाञ्च, विप्रलभ्य प्रतार्य, चुम्बा नादि केवलमधरपानादिकमेवेत्यर्थः। विततार नलाय ददौ। मध्यानायिकाभाव. स्वेऽपि मुग्धावप्रकटनात् प्रकृतसुरताकरणेन प्रियविप्रलम्भः, किञ्च चुम्बनादिषु लज्जातिशयसम्भवेऽपि तदेवलम्बनाभावात् लज्जाविप्रलम्भ इति भावः। तथा हि विदग्धानि कालोचितव्यवहारकुशलानि, मनांसि धियः येषां तादृशानाम् , जनाना. मिति शेषः। किं वैदग्ध्यम् , अगोचरः ? अविषयः ? न किमपीत्यर्थः / अत एव सा विस्रब्धं विहत्त शशाक इति भावः // 86 // इस प्रकार ( 1885) व्यर्थ ही रतमें (पाठा०-अत्यधिक व्यर्थ ) कातर मायावती उस ( दमयन्ती ) ने सुरतमें पति ( नल ) को तथा लज्जाको वञ्चितकर चुम्बन आदि दिया; चतुरचितवाले व्यक्तियों का क्या अविषय है ? अर्थात् चतुर व्यक्ति क्या नहीं कर सकते हैं ? [ मध्या नायिका होनेपर भी मुग्धाभावको प्रकट करके केवल चुम्बनादि देकर प्रकृत सुरतको टाल देनेसे प्रिय ( नल ) को तथा चुम्बनादिमें लज्जाधिक्यकी सम्भावना होनेपर भी उसका अवलम्बन नहीं करनेसे लज्जाको वञ्चित करना कहा गया है / इसका अभिप्राय यह है किसुरतके विषयमें बलात्कार करनेके भयसे डरी हुई यह जिस किसी प्रकार अपनेको मुझसे छुड़ाने के लिए ही ऐसा कहती है। जिस प्रकार अप्रौढ़ा यह दमयन्ती प्रिय नलको वञ्चित. कर उनकी ऐसी वृथा बुद्धि उत्पन्न कर रही है, उसी प्रकार मुझे (लज्जाको) भी वञ्चितकर मुझे अर्थात् लज्जाको यह अब तक भी नहीं छोड़ रही है / यह बलात्कारके भयसे ही चुम्बन नखच्छेदन आदि करती है, स्वेच्छासे नहीं; इस प्रकार लज्जाके त्यागको भी अप्रकटितकर चुम्बनादि सम्पूर्ण सुरतसम्भारको प्रौढ़तासे प्रियके लिए देकर माया ( कपट ) से अपने १.'-तरकातरा' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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