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________________ 134 नैषधमहाकाव्यम् / ( सूने ) सिंहासनको सुशोभित करनेके लिए समर्थ इस समय उत्पन्न हुए हैं (ऐसा कहती थीं, इस पूरक क्रियापदका सम्बन्ध अग्रिम श्लोक (15 / 92) से कहना चाहिये)। [ शंकरजीकी क्रोधाग्निमें जले हुए कामदेवके सूने (रिक्त ) सिंहासनको अलंकृत करनेके लिए सर्वसुन्दर पुरूरवाका विजेता यह नल उत्पन्न हुआ है, ऐसा परस्पर में स्त्रियां कहतीं थीं] / __ पौराणिक कथा-'सत्ययुगमें सूर्यके नाती मनुपुत्र 'सुद्युम्न' (इल ) नामक राजा शिकार खेलता हुआ शङ्करजीसे रोके गये पार्वतीवनमें अकेला प्रवेश करनेपर क्रुद्ध शंकरजीके शापसे "हला' नामकी स्त्री बन गया। उसे अकेली देखकर कामातुर चन्द्रपुत्र बुधने अपने आश्रममें ले जाकर उसमें 'पुरूरवा' नामक अतिशय सुन्दर पुत्रको उत्पन्न किया' ऐसी कथा भविष्योत्तर पुराणमें आयी है // 83 // अर्थी सर्वसुपर्वणां पतिरसावेतस्य यूनः कृते पर्यत्याजि विदर्भराजसुतया युक्तं विशेषज्ञया / अस्मिन्नाम तया वृते सुमनसः सन्तोऽपि यन्निर्जरा जाता दुर्मनसो न सोदुमुचितास्तेषान्तु साऽनौचिती / / 84 / / अर्थीति / विशेषज्ञाया गुणानां तारतम्याभिज्ञया, विदर्भराजसुतया वैदा, अर्थी भैमी परिणेतुम् अर्थित्वं गतः, असौ प्रसिद्धः, सर्वसुपर्वणां पतिः देवेन्द्रः, एतस्य यूनः पूर्णतारुण्यवतः, कृते निमित्तं, नललाभार्थमित्यर्थः पर्यत्याजि नलात् हीनगुणत्वात् परित्यक्तः, इति युक्तम्, अन्यथा अज्ञत्वं स्यादिति भावः, किन्तु अस्मिन् नले, तया वैदा, वृते सति निर्जरा देवाः इन्द्रादयः, सुष्टु मन्यन्ते जानन्तीति सुमनसः सर्वज्ञाः, सुज्ञोऽजाणादिकोऽसुन्प्रत्ययः, शोभनचित्ताश्व, सन्तोपि, दुर्मनसः दूनमनसः, जाता नाम इति यत्, नामेति सम्भावनायां, तेषां देवानां, सा तु दुर्मनीभावरूपा, दुःखितमानसरूपेत्यर्थः, विधेयप्राधान्यात् स्त्रीलिङ्गनिर्देशः / अनौचिती अनौचित्यम्, अनुचितकार्यकारित्वमित्यर्थः, सोलुन उचिता, अस्माभिरिति शेषः। विशेषज्ञानाम् उत्कृष्टवस्तुस्वीकरणम् उचितमेव, किन्तु सुमना इति नामधारिणामपि देवतानाम् दमयन्तीकतंकनलवरणे दुर्मनस्त्वमनुचितमितिभावः / शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् // 84 // विशेषज्ञा विदर्भराजकुमारी ( दमयन्ती ) ने परम युवक इस ( नल ) के लिए याचना करते हुए सम्पूर्ण देवाधीश इन्द्र को भी छोड़ दिया, यह उचित ही किया; किन्तु उस ( दमयन्ती ) के द्वारा इस (नल ) के वरण करने पर 'सुमनस्' ( सुन्दर = अच्छे मनवाले, पक्षा०-देव ) शब्दसे प्रसिद्ध भी वे ( इन्द्रादि ) देव जो 'दुर्मनस्' ( बुरे मनवाले, पक्षादुःखित ) हो गये, यह उनका अनुचित कार्य सहन करने योग्य नहीं है ( 'ऐसा स्त्रियोंने परस्पर में कहा' इस पूरक क्रियापदका सम्बन्ध अग्रिम श्लोक ( 14 / 92 ) से करना चाहिये)। [ विशेषज्ञा दमयन्तीने देवराज इन्द्रका त्यागकर नलको वरण किया यह उचित किया,
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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