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________________ पञ्चदशः सर्गः। 635 किन्तु वे 'सुमनस्' ( देव ) होते हुए भी 'दुर्मनस्' (दुःखित ) हो गये यह उन्होंने अनुचितः एवं नहीं सहन करने योग्य काम किया ] // 84 // अस्योत्कण्ठितकण्ठलोठिवरणस्रकसाक्षिभिदिग्धवैः स्वं वक्षः स्वयमस्फुटन्न किमदः शस्त्रादपि स्फोटितम् | व्यावृत्योपैनतेन हा | शतमखेनाद्य प्रसाद्या कथं भैम्यां व्यर्थमनोरथेन च शची साचीकृताऽऽस्याम्बुजा ?||8|| अस्येति / अस्य नलस्य, उत्कण्ठिते बहुदिनात् भैमीवरमाल्यलाभार्थमुत्सुके, कण्ठे लुठतीति तादृश्याः लोठिन्याः, वरणस्रजः वरमालायाः, साक्षिभिः साक्षाद्रष्टुभिः, दिग्धवः इन्द्रादिभिः दिक्पतिभिः, स्वयं स्वतः एव, अस्फुटत् अपि लज्जाविरहा. दविदीर्णमपि, अदः स्वं वक्षः शस्त्रादपि नलस्यास्त्रप्रहारादपि, स्वयं छुरिकादिघाता. दपि वा, किं न स्फोटितम् ? भैमीलाभार्थ नलेन सह युद्धं कृत्वा तदोयास्त्रेण वा स्वयं व्यर्थमनोरथेन विफलाभिलाषेण, अत एव व्यावृत्योपनतेन प्रत्यावृत्य शचीमुपनतेन, स्वापराधमार्जनार्थ शचीसमीपे प्रणतेनेत्यर्थः / शतमखेन इन्द्रेण, साचीकृतं तिर्यक्कृतम्, आस्याम्बुजं यया सा तादृशी पराङ्मुखी, शची कथं प्रसाधा ? प्रसाद यितव्या ? न कथञ्चिदपीत्यर्थः, हा ! विषादे / शची क्रोधवशात् वक्रास्यतया सन्मुखस्थानवलोकनात् इन्द्रकतप्रणामाचल्यादिकं नावलोकयिष्यतीति कथं प्रसाद्येतिभावः इस (नल ) के ( दमयन्तीको प्राप्त करने के लिए चिरकालसे ) उत्कण्ठित कण्ठमें लटकती हुई वरणमालाको देखते हुए (इन्द्रादि दिक्पालों अथवा-पाठा०-दिगन्ततक प्रसिद्ध शूरवीरों ) ने ( निर्लज्जताके कारण) स्वयं विदीर्ण नहीं होती हुई अपनी छातीको ( अपने ही ) शस्त्र ( पाठा०-इस नलके शस्त्र) से क्यों नहीं विदीर्ण कर लिया ? / ( अथवा दिगन्ततक प्रसिद्ध शूरवीर मनुष्यों या दिक्पाल अग्नि आदि तीनों देवोंकी बात छोड़ो ), सैकड़ों यज्ञोंसे ख्याति प्राप्तं एवं दमयन्तीके विषयमें .असफल मनोरथवाला इन्द्र भी ( यहांसे निराश ) लौटकर (इन्द्राणीको प्रसन्न करनेके लिये प्रणत, पाठा०-समीपमें गया हुआ) क्रोधसे मुखकमलको फेरी हुई इन्द्राणीको कैसे प्रसन्न करेगा ? हाय ! ( यह बड़े खेदका विषय है / ऐसा नलको देखनेवाली स्त्रियों ने कहा, ऐसे क्रियापूरक वाक्यका अग्रिम श्लोक (15 / 92) से अध्याहार करना चाहिये)। [जो सच्चा शूरवीर होता है, वह अपने प्रतिद्वन्द्वीसे पराजित होकर लज्जाके कारण अपनी छातीको अपने ही शस्त्रसे विदीर्णकर मर जाता है, या उस प्रतिद्वन्दीके ही शस्त्रसे छातीको विदीर्ण 1. 'दिग्भटैः' इति 'प्रकाश' सम्मतं पाठान्तरम् / 2. 'किमदःशस्त्रादपि' इति पाठान्तरम् / 3. 'गतेन' इति पाठान्तरम्।
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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