________________ द्वादशः सर्गः। 727 कोसी अर्थात् उसका उपहास किया; क्योंकि निषधराज ( नल ) का ऐश्वर्य वचनातीत (नहीं वर्णन कर सकने योग्य) है / [वर्णनमें अशक्य ऐश्वर्यवाले निषधराज नलसे वर्णन किये जा सकनेवाले इस काञ्चीनरेशके हीन होनेके कारण सरस्वती-वर्णित काञ्चीनरेशका दमयन्तीने उपहास कर दिया] // 41 // निजाक्षिलक्ष्मीसितैणशावकामसावभाणीदपरं परन्तपम् / पुरवं तदिग्वलयश्रियो भुवा भ्रवा विनिर्दिश्य सभासभाजितम् // 42 // निजेति / असौ सरस्वती, सभासु सभाजितं पूजितं, परन्तपं रिपुतापकं, 'द्विषस्परयोस्तापेः' इति खच प्रत्ययः, 'खचि हस्वः' इति ह्रस्वः, 'अरुद्विषदजन्तस्य-'इति सुम् , अपरमन्यं नृपं, पुरेव पूर्ववत् , तस्य राज्ञः, दिशो वलये या श्रीः तस्या भुवा स्थानेन, तहिग्वलितयेत्यर्थः, भ्रवा दृशः ऊर्वावयवेन, ' ऊर्ध्व दृग्भ्यां भ्रवौ स्त्रियो' इत्यमरः, विनिर्दिश्य निजाक्षिलक्ष्म्या स्वनेत्रशोभया,हसितैणशावकाम् उपहसितमृ. गशाककां,विशालतया अधाकृतमृगाक्षीमित्यर्थः, भैमीमिति शेषः, अभाणीत् बभाण // वह सरस्वती देवी पहलेके समान (पाठा०-पहले ही) उस ( दिखाये जानेवाले राजा) की ओर सञ्चालित भ्रूसे सभामें श्रेष्ठ एवं शत्रुको सन्तप्त करनेवाले दूसरे राजाको निर्देश करके अपने नेत्रोंकी शोभासे मृगके बच्चे ( की आंख ) को हँसनेवाली अर्थात् मृगके बच्चेके नेत्रोंसे सुन्दर नेत्रवाली उस ( दमयन्ती ) से बोली // 42 // कपा नृपाणामुपरि कचिन्न ते नतेन हाहा.शिरसा रसादृशाम् / भवन्तु तावत्तव लोचनाञ्चला निपेयनेपालनृपालपालयः // 43 // कपेति / हे भैमि ! नतेन अवनतेन, शिरसा रसां भुवं पश्यन्तीति तेषां रसाहशाम् अधःपश्यतां, त्वत्कृतप्रत्याख्यातात् लज्जया अधोमखानामित्यर्थः, नृपाणामपरि ते तव, कचित् कुत्रापि, कृपा न, हाहेति खेदे तव लोचनाञ्चलाः कटाक्षाः, निया ग्राह्या, नेपालनृपालस्य नेपालभूपतेः, पालिः कोटिः, तदिग्भाग इत्यर्थः, येषां तादृशाः, तावत साकल्येन, सर्वथा इत्यर्थः, भवन्तु, कटाक्षदृष्टया तं पश्येत्यर्थः स्त्रियां पाल्य. शिकोटयः' इत्यमरः॥४३॥ ( तुम्हारे द्वारा वरण न किये जाने पर लज्जित एवं ) नतमस्तक होकर पृथ्वीको देखनेवाले किसी राजाके ऊपर तुम्हारी कृपा नहीं है हाय ! हाय !! अर्थात् महान् कष्ट है ( किसीको ) तुम नहीं देखती .यह उचित नहीं है। अस्तु, फिर भी तुम्हारे नेत्रप्रान्त ( कटाक्ष ) अत्यन्त पान करनेयोग्य नेपाल नरेशके पान करनेवाले भ्रमर हों अर्थात् तुम कटाक्षसे नेपाल नरेशको देखो // 43 // ऋजुत्वमौनश्रुतिपारगामिता यदीय सन्ति परं विहिंसितुम् | अतीव विश्वासविधायि चेष्टितं बहुमहानस्य स दाम्भिकः शरः // 44 // 1. 'पुरैव' इति पाठः। 2. 'यदीयमेतत्परमेव हिंसितुम्' इति पा०।