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________________ सप्तदशः सर्गः। 1053 मनुप्रतिपादित सिद्धान्त ) में भी संशयालु मत होवो, (इस कारण ) जिस-जिस मानन्द (परस्त्री-सम्भोग जन्य सुख ) को चाहते हो, उस-उसका स्वच्छन्द (निर्वाधरूपसे) आचरण करो। [ मेरा ( चार्वाकका) मत तुमलोगोंके सम्प्रदायके विपरीत होनेसे यथाकथञ्चित् भले ही उसपर विश्वास नहीं करना उचित हो सकता है, परन्तु गुरुसम्प्रदायानुगत विद्या पढ़नेवाले तुमलोगोंको 'बलाहन्तं बलाद्भुक्त... ..( 8 / 168 ) इस मनुप्रतिपादित वचनमें तुमलोगोंको सन्देह करना कदापि उचित नहीं है और इस अवस्थामें उक्त वचना. नुसार स्वेच्छापूर्वक परस्त्रीसम्भोगादिरूप सुखका आनन्द तुमलोगोंको लेना चाहिये ] // 49 // श्रुतिस्मृत्यर्थबोधेषु कैकमत्यं महाधियाम ? | व्याख्या बुद्धिबलापेक्षा सा नोपेक्ष्या सुखोन्मुखी // 50 // ननु मनुवचनस्य व्यवहारविषयस्वानायमर्थः, सम्प्रदायविरुद्धत्वात् इत्याक्षिपन्तं प्रत्याह-श्रुतीति / महाधियां तीक्ष्णबुद्धीनां पुंसां, श्रुतिस्मृत्यर्थानां वेदधर्मशास्त्रोक्त विषयाणां, बोधेषु ज्ञानेषु, ऐकमयं मतैक्यं, मतविरोधाभाव इत्यर्थः / क? कुत्र? न कापि, अपि तु सर्वत्रैव विसंवाद इति भावः। किन्तु व्याख्या पदवाक्यार्थप्रति. पादनं, बुद्धिबलापेक्षा ज्ञानौस्कानुसारिणी, ज्ञानस्य उत्कर्षापकर्षानुसारेण शास्त्रस्य विविधव्याख्या कत्त शक्यते यया परमतनिरसनेन स्वमतं स्थापयितुं युज्यते इति भावः / एवं स्थिते या व्याख्या सुखोन्मुखी सुखप्रवणा, आनन्दसाधिका इत्यर्थः / सा न उपेक्ष्या न त्याज्या, सा एवं ग्राहइत्यर्थः / अतः यथेच्छमाचरतेति भावः। वेदों तथा धर्मशास्त्रों के अर्थशानमें महामतिमानोंको भी एक मत कहा है अर्थात् कहीं नहीं ( अपितु विसंवाद ही है ) ऐसी स्थितिमें पद-वाक्यार्थ-निरूपण बुद्धिके आधिक्यके अनुसार है और सुखदायिनी उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये। [ मनुस्मृतिके उक्त वचनका वैसा अभिप्राय नहीं है, जैसा कि आपने पूर्व दो श्लोकोंमें प्रतिपादन किया है, इस प्रकार आक्षेप करनेवालेका खण्डन करनेके उद्देश्यसे यह वचन है। इसका तात्पर्य यह है कि बड़े-बड़े विद्वानोंको भी वेद तथा स्मृतियोंके अर्थक विषयमें एकमत नहीं है किन्तु शानोत्कर्षके अनुसार की गयी व्याख्याको ही सिद्धान्त माना जाता है, इसी कारण जिस वेदमन्त्रका अर्थ अद्वैतवादी अभेदपरक मानते हैं, उसीका अर्थ द्वैतवादी भेदपरक मानते हैं, इसी प्रकार स्मृतियोंमें भी एक मत नहीं है, अत एव जिस व्याख्याका अन्तिम परिणाम आनन्दप्रद हो, उसीका आश्रय करना बुद्धिमत्ता है, ऐसी स्थितिमें उक्त मनुवचनका मदुक्त आशय मानकर आनन्दप्रद परस्त्रीसम्भोग आदि करना मनुवचन विरुद्ध नहीं होनेसे दोषोत्पादक नहीं है, अतः वैसा स्वच्छन्द आचरण करना चाहिये ] // 50 // यस्मिन्नस्मीति धीदेहे तद्दाहे वः किमेनसा ? | क्वापि किं तत् फलं न स्यादात्मेति परसाक्षिके ? // 51 // नन्वेवं सुखालोक्यात पापाचरणे परनालिष्ट स्पादित्यवाह-यस्मिमिति / यस्मिन्
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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