SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्दशः सर्गः। 851 एषामकृत्वा चरणप्रणाममेषामनुज्ञामनवाप्य सम्यक् / सुपर्ववैरे तव वैरसेनि वरीतुमीहा कथमौचितीयम् ? / / 38 // एषामिति / हे वत्से ! एषाम् इन्दादीनां, चरणप्रणामम् अकृत्वा, एषामनुज्ञा नलवरणे सम्मति, सम्यक अनवाप्य अप्राप्य च, सुपर्ववैरे अवज्ञाकरणात् देवताद्वेषे सति, तव वीरसेनस्य अपत्यंवरसेनिः नलः तं, वरातुम् 'वृतो वा' इति विकल्पादिटो दीर्घः / इयम् ईहा स्पृहा, कथम् औचिती औचित्यम् ? न कथञ्चिदित्यर्थः // 38 // ('तब तुम मुझे देवोंके सम्मुख वरण करनेके लिए पकड़कर क्यों लिये जा रही हो' इस शङ्काका निवारण करती हुई सरस्वती देवी आगे फिर कहती हैं कि-) इन ( इन्द्रादि देवों ) के चरणों में प्रणाम नहीं करके तथा इनकी आज्ञाको अच्छी तरह नहीं प्राप्त करके ( अपना वरण त्याग कर नलको वरण करने के कारण उत्पन्न होनेवाले ) देवोंके विरोध रहने पर वीरसेनके पुत्र ( नल ) को वरण करनेको तुम्हारी यह इच्छा उचित है क्या ? अर्थात् कदापि नहीं; ( अतएव मैं तुम्हें इनके सामने वरण करनेके लिए नहीं ले जाना चाहती, किन्तु 'तुम इनके चरणों में प्रणामकर प्रसन्न होकर अपना-अपना रूप धारण करनेसे नलवरणार्थ इनकी आज्ञाके मिल चुकने पर भी उक्त प्रणाम द्वारा इन्हें अतिशय प्रसन्नकर शिरः. कम्प या वचनादिसे स्पष्टरूपमें आज्ञा पाकर नलका वरण करे इस अभिप्रायसे मैं तुम्हें इनके सम्मुख ले जाना चाहती हूं, अतएव तुम्हें मेरे विषयमें कोई शङ्का नहीं करनी चाहिये)। इतीरिते विश्वसितां पुनस्तामादाय पाणौ दिविषत्सु देवो / कृत्वा प्रणम्रां वदति स्म सा तान् भक्तेयमहत्यधुनाऽनुकम्पाम् / / 3 / / इतीति / सा देवी इतीरिते सति विश्वसितां प्रतीतां, तां भैमी, पुनः भूयः, पाणौ हस्तौ, आदाय तत्पाणिं गृहीत्वेत्यर्थः, दिविषत्सु देवेषु; देवतानांसमीपे इत्यर्थः, प्रणम्रां प्रणतां, कृत्वा तान् इन्द्रादिदेवान् , वदति स्म उक्तवती, 'लट स्मे' इति भूते लट / किमिति ? भक्ता युष्मद्भक्ता, इयं दमयन्ती, अधुना इदानीम् , अनुकम्पां भव त्कृपाम् , अर्हति; निजवरणाशां विहाय नलवरणार्थमनुग्रहं कुरुतेति भावः // 39 // ___ सरस्वती देवी ऐसा ( 14 / 38 ) कहने पर विश्वासकी हुई उस ( दमयन्ती ) को फिर हाथमें लेकर ( ग्रहणकर ) देवोंमें प्रणत करके 'भक्ता' यह ( दमयन्तो ) इस समय आपलोगोंकी ( नल वरणकी स्वीकृतिरूपी ) दयाके योग्य है अर्थात् अब आपलोग इस दमयन्ती पर दयाकर नलवरणार्थ इसे स्वीकृति दें // 39 // युष्मान् वृणीते न बहून् सतीयं शेषावमानाच्च भवत्सु नैकम् / तद्वः समेतं नृपमंशमेनं वरीतुमन्विच्छति लोकपालाः ! // 4 // युष्मानिति / हे लोकपालाः ! सती साध्वी, एकभत्त का इति यावत् , इयं भैमी, 1. 'मनिशम्य' इति पाठान्तरम् / / 1. 'कतमौचिती' इत्यपि पाठः, इति 'प्रकाश'-कारः /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy