________________ 850 नैषधमहाकाव्यम् / भीमनन्दिनी ( दमयन्ती) ने घुमानेसे चञ्चल कण्ठरूप नामवाले तथा सखियों के 'हूं हूं' इस प्रकारके ( परिहासवश नलके पास जानेमें निषेध करते हुए) लाखों अर्थात् अत्यधिक वचनों (भ्रमरोंके अत्यधिक हूँ हूँ' रूप गुञ्जन ) से लक्षित (या-सुन्दर ) मुखरूपी कमलको करके देवी ( सरस्वती देवी) के उस अङ्कपालीको उस प्रकार छोड़ा, जिस प्रकार नववधू सखियोंके लाखों बार मना करनेपर भी पतिके अङ्कपाली ( आलिङ्गन ) को छोड़ती है / [ कमलके सञ्चालनसे कमलनाल ( डण्ठल ) का हिलना तथा भ्रमरोंके बहुत गुञ्जनसे लक्षित (या-सुन्दर ) होनेके समान इन्द्रकी ओरसे मुखको मोड़नेसे दमयन्ती कण्ठनाल हिला तथा परिहास करती हुई सखियोंने इन्द्रकी ओरसे मुखको मोड़ते समय निषेधसूचक जो 'हूं हूं' शब्द किया उससे उसका मुख बहुत सुन्दर दीखने लगा, ऐसी दमयन्तीने इन्द्रकी ओरसे मुख मोड़कर सरस्वती देवीके आलिङ्गन ( कसकर अङ्कमें पकड़ने ) को उस प्रकार छूड़ा लिया, जिस प्रकार नई बहू सखियोंके मना करते रहने पर भी पतिके आलिङ्गनको छुड़ा लेती है ] // 36 / / देवी कथश्चित् खलु ताम देवद्रीचीभवन्ती स्मितसिक्तसृक्का / आह स्म तां मय्यपि ते भृशं का शङ्का ? शशाङ्कादधिकास्यबिम्बे ! // देवीति / देवी तां भैमी, कथञ्चित् खलु कथञ्चिदपि, देवान् अञ्जतीति देवीची देवानुवर्तिनी, 'देवानञ्चति देवद्रयङ' इत्यमरः / 'ऋत्विगदधक-' इत्यादिना अञ्चतेः किन्-प्रत्ययः, 'विश्वग्देवयोश्च टेरद्रयञ्चतावप्रत्यये' इति टेरद्रयादेशः, 'उगितश्च' इति सूत्रे उगित्वात् ङीप् 'अञ्चतेश्वोपसङ्ख्यानाम्' इति वा ङीप / सा न भवन्तीम् इति अदेवद्रीचीभवन्ती देवान् अनभिगच्छन्तीमित्यर्थः, दृष्ट्वेति शेषः, स्मितेन सिक्ते सक्कणी ओष्ठप्रान्तो यस्याः सा तादृशी सती, 'प्रान्तावोष्ठस्य सक्कणी' इत्यमरः हे शशाङ्कात् अधिकम् उत्कृष्टम्, आस्यबिम्ब मुखस्वरूपं यस्यास्तस्याः सम्बुद्धिः, सापेक्षस्वेऽपि गमकत्वात् समासः / मयि मम समीपेऽपि, ते तव, का शङ्का ? अविश्वासः ? न काचिदित्यर्थः, इति तां भैमी, भृशम्, आह स्म उवाच, 'लट स्मे' इति भूते लट् , 'ब्रुवः पञ्चानाम्' इत्यादिना णलाहादेशः // 37 // सरस्वती देवीने, किसी प्रकार ( बड़ी कठिनाईसे ) देव (इन्द्र) के सम्मुख नहीं होती हुई उस (दमयन्ती ) से बोली-'हे चन्द्रसे भी अधिक सुन्दर मुखबिम्बवाली (दमयन्ति) ! मेरे विषयमें ( पाठा०-मैरे प्रति ) भी अधिक (पाठा०-फिर) कोई शङ्का है क्या ? अर्थात परम हितैषिणी मुझमें तुम्हें किसी प्रकारका ('यह सरस्वती मुझे इन्द्र के पास वरण करने के लिये पकड़कर ले जा रही है। ऐसा) सन्देह नहीं करना चाहिये // 37 / / 1. 'तामदेवद्रीची भवन्तीम्' इति पाठान्तरम् / 2. 'मां प्रत्यपि से पुनः का' इति पाठान्तरम् /