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________________ ऊनविंशः सर्गः। 1281 लोगोंकी अकालमृत्यु करता है; क्योंकि कारणगुण कार्यगुणको आरम्भ करनेवाले होते हैं। अथवा-लोकोपकारक पिताके समान अश्विनीकुमारोंका सर्वोपकारी होना उचित ही है; एवं निर्दय यमके पिता निर्दयतम सूर्यका कुमुदविनाशक होना भी अनुचित नहीं है, अपितु उचित ही है। उदीयमान सूर्यने अन्धकार को दूर कर दिया, कमल विकसित हो गये और कुमुद निमीलित ( सङ्कुचित ) हो गये ] // 50 // उडुपरिवृढः पत्या मुक्तां सतीं यदपीडयद्यदपि बिसिनीं भानोर्जायां जहास कुमुद्वती। तदुभयमतः शङ्के सङ्कोचितं निजशङ्कया प्रसरति नवार्के कर्कन्धूकणारुणरोचिषि // 51 // उडविति / उडुपरिवृढः तारापतिः चन्द्रः, पत्या भर्ना भानुना, मुक्तां त्यक्ताम् , दिनान्ते अस्तमितत्वादिति भावः / सती साध्वीम् , बिसिनी पद्मिनीम् , यत् यतः, अपीडयत् पीडितवान् , रात्री सङ्कोचनेन इति भावः। तथा कुमुद्धती कुमुदिनी अपि / 'कुमुदनडवेतसेभ्यो ड्मतुप' / भानोः सूर्यस्य, जायां भार्याम् , बिसिनी पद्मिनीम् , यत् यस्मात् , जहास हसितबती, इवेति शेषः / निशायां स्वविकाशेन इति भावः / अतः अस्मादेव कारणात् , कर्कन्धूः पक्कबदरीफलमित्यर्थः / 'अन्दूहन्भू-' इत्यादिना कुप्रत्ययान्तनिपातः। तत्कणावत् तच्चर्ण इव, अरुणरोचिषि लोहितकान्ती, प्रभातकालिकत्वात् क्रोधाच्चेति भावः / नवाङ बालसूर्य, प्रसरति आकाशं व्याप्नुवाने सति, तयोः चन्द्रकुमुद्वत्योः, उभयं द्वन्द्वम् , निजशङ्कया स्वकृतपद्मिनीलान्छनाभयेन, सङ्कोचितं निस्तेजस्वं गतम् , निष्प्रभोभूत मिति यावत् / निमीलितञ्च / शङ्के इति मन्ये, अहमिति शेषः / इत्युत्प्रेक्षा / सर्वो हि स्वदुष्टव्यवहारेणात्मानं कलुषयतीति भावः // 51 // " इस ( असङ्ग होते हुए ) नक्षत्रपति अर्थात् चन्द्रने पति ( पक्षा०-सूर्य ) से (सायकाल होने के कारण ) छोड़ी गयो सूर्यकी पत्नी कर्मालनीको पीडित (किरण-स्पर्शसे सङ्कचित, पक्षा०-करस्पर्शसे दूषित ) किया और ( स्वयं विकसित होकर ) कुमुदिनीने जिस कारण ( उस सङ्कुचित कमलिनीको ) हंसा; इस कारण वे दोनों (चन्द्र तथा कुमुदिनी) अपने अपराधको शङ्कासे बेरके ( फलके ) चूर्ण ( पाठा०-बेरके फल ) के समान (प्रातःकाल होनेसे, पक्षा०-क्रोधके कारण ) अरुणवर्ण नये सूर्यके तीव्रगतिसे आते (पक्षा०उदित होते ) रहनेपर सङ्कचित हो गये हैं ऐसी शङ्का करता हूँ। [जिस प्रकार किसी पतिसे विरहित पत्नीको दूसरा कोई पुरुष पीडित करता तथा उसे पीडित करते हुए देखकर उस पत्नीको उस दूसरे पुरुषकी स्त्री उपहास करती है और उस पीड़ित स्त्रीके पतिको क्रोधसे लाल होकर शीघ्रगतिसे आते हुए देखकर अपराधी दोनों स्त्री-पुरुष अपने किये 1. 'फलारुण' इति पाठान्तरम् / 'कर्कन्धूकूणेति पाठश्चिन्त्यः' इति 'प्रकाश'कारः /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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