________________ ऊनविंशः सर्गः। 1263 सपक्ष ( सहायक ) सूर्य के उदयसे युक्त कमलवन विकसित नहीं हो। ( पक्षा०-नहीं हँसे ) ?, क्षीणकान्ति मित्र चन्द्रमावाला कुमुद तन्द्रा (निमीलन, पक्षा०- पङ्कोच-हर्षामाव ) को नहीं प्राप्त करे ?; अथवा-कमल-समूह हिमालय पर्वतकी चाहनों के समान (स्वच्छतम) कान्तिसे स्पष्ट हर्षवाले कुमुदवनकी निद्रासे हँसे हैं अर्थात् अपनी निद्राको कुमुदवनमें देकर उसके विकासरूपी हासको ग्रहण कर लिये हैं। ( पाठा०-कमलोंने हिमालयकी चट्टानों के समान स्वच्छतम शोभावाले इस स्मित ( ईषद्धास्य, पक्षा०-विकसन ) को अपनी निद्रा (निमीलन ) से बदल लिया ) / [ जिस प्रकार अपने पक्षवाले व्यक्ति के अभ्युदय होनेपर कोई व्यक्ति हँसता है, उसी प्रकार विकसित होने में कारणभूत स्वपक्ष सूर्यके उदय होनेसे कमल विकसित हो ( पक्षा०-हँस ) रहा है; जिस प्रकार अपने पक्षवालेका नाश या अवनति होनेसे कोई खिन्न होता है, उसी प्रकार विकास करनेवाले सुहृद् चन्द्रमाके क्षीणरुचि होकर अस्त ( अस्तोन्मुख ) होनेसे कुमुद निमीलित ( पक्षा-खिन्न ) हो रहा है / अथवा-जिस प्रकार लोकमें कोई व्यक्ति किसीकी वस्तुको लेकर अपनी वस्तु उसको देता है, जो कमल रात्रिमें निमीलित ( पक्षा०-निद्रित ) था, उसने रात्रिमें विकसित रहनेवाले ( पक्षा०स्मित करनेवाले ) कुमुदसे अदला-बदली कर ली है अर्थात् अपनी निद्रा ( पक्षा०निमीलन-विकासभाव ) को कुमुद के लिए देकर उसके स्मित (हास, पक्षा०-विकासमाव) को स्वयं ग्रहण कर लिया है ] // 32 // धयतु नलिने माध्वीकं वा न वाऽभिनवागतः कुमुदमकरन्दौघैः कुक्षिम्भरिभ्रमरोत्करः / इह तु लिहते रात्रीतष रथाङ्गविहङ्गमा मधु निजवधूवक्त्राम्भोजेऽधुनाऽधरनामकम् / / 33 // धयस्विति / कुमुदानां कैरवाणाम् , मकरन्दौघैः मधुसमूहै, कुक्षिम्भरिः उदरपूरकः / 'फलेग्रहिरात्मम्भरिश्च' इति चकारात् कुहिम्भरिः सिद्धः। नलिने पझे, अभिनवागतः सद्यः समागतः, भ्रमरोस्करः भृङ्गसङ्घः, माध्वीकं मकरन्दम, कमलमधु इत्यर्थः, धयतु पिबतु वा, न वा, धयतु इति शेषः। रात्री कुमुदमधुभिः उदरपूर पीतत्वात् तृप्तस्य अतिथेः पानाद्यभावे न काऽपि क्षतिः इति भावः / तु किन्तु, रथाङ्गविहङ्गमाः चक्रवाकाः, रात्रीतर्ष रात्रि व्याप्य तृषित्वा, प्रियाविरहात् तर्षणैः रात्रि नीत्वा इत्यर्थः / अस्यतितृषोः क्रियान्तरे कालेषु' इति णमुलप्रत्ययः / इह अस्मिन् , निजवधूवक्त्राम्भोजे स्वकान्तामुखकमले, अधुना सम्प्रति प्रभाते, अधरनामकम् ओष्ठसंज्ञकम् , मधु मकरन्दम् , लिहते आस्वादयन्ति / प्रभाते चक्रवाकदम्पतीनां परस्परमेलननियमादिति भावः / ततश्च भुक्तस्य भोजनापेक्षया अभुक्तस्य भोजनादेव सहृदयानां तृप्तिरित्याशयः // 33 // कुमुदोंके मकरन्द-समूहों अर्थात् बहुत मकरन्द (का रात्रिमें पान करने ) से परिपूर्ण